Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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एकल परिवार का बढ़ता आँकड़ा चिन्ता का विषय

 

भारत संस्कारो का देश रहा है जहाँॅ ंकि संस्कृति की खुश्बू पर प्रत्येक देशवासियों को ही नहीं बल्कि विदेशियों को भी गर्व रहा है इसी सुसंस्कृति के कारण भारत विश्व में आकर्षण का केन्द्र बिन्दु बनकर यश प्राप्त करते हुए ज्ञान का विश्व गुरू बना । भारत गांँव में बसता है यदि इस वाक्य पर गौर किया जाए तो यह वास्तव में अपने आप में सत्य है क्योंकि भारत संस्कारो का देश है और संस्कारो की झलक गांँव में ही देखने को मिलती है यदि संस्कार और संस्कृति को बल मिला है तो वह गांँव (ग्रामीण क्षेत्रो) के संयुक्त परिवारों से। आज का बालक कल का नागरिक व देश का भविष्य होगा और उस देश का भविष्य वैसा ही होगा जैसी वहांँ की संस्कृति होगी और संस्कृति तभी अच्छी होगी जब प्रत्येक परिवार में वैसे संस्कार होंगे। पाश्चात्य सभ्यता के प्रवेश उपरांत भारतीय संस्कृति पर जो संकट के घनघोर काले बादल मंँडरा रहे है उनको गति एकल परिवारों से मिलने लगी है संयुक्त परिवार से प्राप्त संस्कृति और संस्कार कहीं अधिक सुदृढ़ होते है बजाए एकल परिवार के।

 


परिवार बच्चे की प्रथम पाठशाला होते है और परिवार का प्रत्येक सदस्य बच्चे का आचार्य होता है अतः इस परिवार रुपी पाठशाला में परिजनो रुपी आचार्यो द्वारा सिखाये गये संस्कार, गुण बालक और उसके परिवार के तथा उसके भाग्य का निर्धारण करते है इतिहास पर गौर किया जाये तो भारत माॅंँ की कोख से एक से एक वीर महापुरूषों ने जन्म लेकर भारत मांँ की कोख और राष्ट्र को गौरान्वित किया है और इनकी वीरता को जन्म दिया है ऐसे ही संस्कारवान संयुक्त परिवारांे ने, किन्तु आज इसका घटता प्रभाव और एकल परिवार का बढ़ता प्रभाव एवं आंँकडा विचारणीय समस्या तथा चिन्ता का विषय है।

 

 

पर्वो की सार्थकता

 


भारत पर्वो का देश है जहाॅँ हर आने वाला दिन किसी ना किसी रूप में अपने आप में इतिहास समेटे अपना अलग महत्वपूर्ण स्थान रखता है साथ ही अपने आगमन के साथ-साथ समाज एवं राष्ट्र को नयी गति, प्रेरणा, मार्गदर्शन और ऊर्जा देने का विशेष कार्य पर्व करते है किन्तु विडंबना है कि बदलते समय और माहौल के चलते अब इन पर्वो की परिभाषा भी परिवर्तित होने लगी है। आज से वर्षो पूर्व या पुरातन काल में जिन पर्वो का जन्म समाज एवं राष्ट्र कल्याण के लिये हुआ था वे पर्व चाहे राष्ट्रीय हो या सामाजिक धार्मिक हो या सांस्कृतिक, ऐतिहासिक हो या अन्य कोई भी, इन सबका अर्थ बदलकर महज औपचारिकता पूर्ति तक सीमित रह गया है। राष्ट्र और समाज की संस्कृति, आस्था, विश्वास, भक्ति-शक्ति के परिचायक इतिहास की धरोहर इन पर्वो की निरन्तर बदलती तस्वीर और पश्चिमी देशो की संस्कृति के बढ़ते प्रभाव ने पर्वो को नाम मात्र के लिये ही जीवित रखा है जबकि पर्व राष्ट्र की संस्कृति की बुनियाद और सभ्य समाज के निर्माण का आधार होते है लेकिन, पर्वो की सार्थकता तभी होती है जब उनके नियमों तथा आदर्शो को भली भाँंति जानकर उनका पालन करें, तभी हमारे द्वारा पर्वो को मनाने की सार्थकता सिद्ध होगी जो राष्ट्र एवं समाज के नव निर्माण के लिये हमारी एक महत्वपूर्ण सेवा होगी।

 


असतो मा सदगमयः तमसो मा ज्योतिर्गमयः

 

 

भारत में अतिप्राचीन व महान संस्कृति को जीवित रखने वाले त्यौहारों की श्रंृखला में दीपावली पर्व का अत्यन्त ही महत्वपूर्ण स्थान है यह पर्व न सिर्फ हमारे देश भारत में बल्कि समूचे विश्व में अलग-अलग नामों से तथा अपने अपने सुन्दर ढंग से मनाया जाता है। कार्तिक मास की अमावस्या को प्रतिवर्ष करोड़ों भारतीय असंख्य नन्हे दीप प्रज्जवलित करके अंधकार को चुनौती देते है जगमगाती दीपावली में दीपमालिका की आभा असतो मा सदगमयः तमसो मा त्योतिर्गमयः का वैदिक सन्देश स्मरण कराते हुये असत्य से सत्य की ओर, तम से प्रकाश की ओर, अज्ञान से ज्ञान की ओर दृढ़तापूर्वक कदम बढ़ाने के लिये प्रोत्साहित करते है। प्रकृति का अपना नियम है कि समाज के कल्याण के लिये जो अपना बलिदान देते है वह सदैव दीपक के उज्जवल धवल प्रकाश की तरह अमर होकर जगमगाते है और जो समाज को क्षति (हानि) पहुॅंँचाने के लिए भभकते है वह आग की तरह बुझा दिये जाते है दीपावली प्रकाश पर्व इन्ही पुनीत भावनाओं व अंधकार निराशा के बीच प्रकाश एवं सत्साहस की प्रेरणापुंज तथा त्याग बलिदान का स्मरणीय प्रतीक पर्व है।

 

 

“बने बाती सा यह तन मेरा
रहे तेल जैसा ये मन मेरा
जलूॅंँ और जग को प्रकाश दंॅूँ
दिये जैसा हो जीवन मेरा”

 

 

दीप़ावली वास्तव में दीपक, तेल और बाती की अनूठी एकता और उनके पुण्य बलिदान का प्रतीक स्मरणीय पर्व होने के साथ साथ असत्य और अज्ञान रूपी अंधकार पर सत्य और ज्ञान रूपी प्रकाश की जय-विजय का पर्व भी है। दीपावली के रिमझिमाते झिलमिलाते प्रकाश में अनेक गूढ़ अर्थ प्रकाशित होकर चमकते हुये समाज व राष्ट्र को निरन्तर नई प्रेरणा चेतना व शिक्षा प्रदान करते है जिस प्रकार दीपक एक अकेला होकर भी समस्त प्रकार के अंधकार को काल का ग्रास बना लेता है और अपने प्रकाश द्वारा जग को प्रकाशित कर बुझने के उपरांत भी इतिहास में महाभारत के कुमार अभिमन्यु की भाँंति अमरत्व प्राप्त कर लेता है उसी प्रकार हमें भी समाज की अनेक प्रकार की बुराईयाँॅ रूपी अंधकार को दीपक की भांँति ज्ञान, बल की शक्ति से निर्भय निर्बाध गति से समाप्त करना चाहिये। राष्ट्र में छायी यह बुराई रूपी घनघोर काली अमावस्या जिस दिन हमारी दीपक, तेल और बाती की अटूट एकता व उनके बलिदान की तरह हमारे राष्ट्रीय त्याग संघर्ष रूपी दीपक के प्रकाश से भस्म हो जाएँगी उसी दिन दीपावली और उसकी सार्थकता सच्चे अर्थो में सिद्ध होगी। लेकिन, तब तक

 

 

“सदभावों के फूलों को
मुरझाने से बचाये रखिए
खण्डित ना हो मानवता
एक दीप जलाये रखिए”

 

 

 

विशाल शुक्ल

 

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