Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

आत्मा !!

 

उछलती कूदती उछल कर रह गयी
मृत्यु के द्वार पर भटक कर रह गयी !!

 

तन की रंगरेलिया मन की अठखेलियां
और अंत में तृष्णा प्यासी रह गयी !!

 

ये चली देख अब उड़ कर किस ओर
मेरे ही बदन को यूँ नंगा कर गयी !!

 

बादलों में मस्त नीले अम्बर के संग
स्वर्ग के द्वार ठिठक कर रह गयी !!

 

न ये तन मेरा था न ये मन मेरा था
राख़ में जाने क्या खोजती रह गयी !!

 

धूल से चिपक गयी ,गर्द में मिल गयी
लहरो पर उश्रृंखलता , हवा में उड़ गयी !!

 

ना जाने इसका अब कहाँ हो ठिकाना ?
पराये तन में जाने कहाँ घर कर गयी !!

 

 

 

विश्वनाथ शिरढोणकर

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ