मै अगर बेशर्म हो जाऊं तो तुमसे नजरे मिलाऊं
शर्मिंदगी की पर्दादारी है,किधर जाऊं कहाँ जाऊं ?
मज़बूर खताओं का ग़िला , पस्ती सूरत का सिला
खोजता तुम्हारा पता , किस ग़ली से कहाँ जाऊं ?
कत्लगाह में खड़ा हूँ बेशक कत्ल ही होना हैं
निकल सकूं बाहर तो ज़माने को इंतजार में पाऊं !
माना ख़ुदा कीं सबसे बड़ी नियामत हैं मोहब्बत
न हो ये नसीब तो क्या वक़्त गुजरा हो जाऊं ?
समुंदर सी थी जिंदगी , सिमटा क़ोई दायरा न था
तराशे जो ढेरों बुत मैंने , लहरों पे कहां से दिखाऊं ?
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विश्वनाथ शिरढोणकर
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