बदल डालो रिश्तों को
ना कागज़ पर रंगते है
ना कलम से बढ़ते है
ना जमीं पर उतरते है
ना चमत्कार दिखाते है
ना कोई स्वाद ना कोई गंध
ना कोई आकर ना कोई प्रकार
ना आईने में नजर आते है
ना परछाई में झांकते है
ना सुनते है ना बोलते है
ना थर्मामीटर से नापे जाते है
ना धागे से रफ़ू होते है
ना पैबन्दों से ढक पाते है
ना हवा के झोंके में
ना पानी के बहाव में
ना रूप है ना रंग
बर्फ़ में पिघलते नहीं
रुठने पर मानते नहीं
खौफ़ में टिकते नहीं
झूठे एहसास में बिगड़ जाते
अपने ही वजूद से बेखबर
न हिलते है न डुलते है
चट्टान बन जाते है
राह के रोड़े पत्थर बेजान से
बेजान से वजूद को ढोती है लाशे
इन रिश्तों का हश्र क्या पूछती है आँखें
उम्र गुजर जाती है समझने में
रिश्तें ही तो रिश्तों में बतियाते है
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विश्वनाथ शिरढोणकर
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