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कल और आज

 

हिन्दी नाटक ... कल और आज

.. विवेक रंजन श्रीवास्तव विनम्र , ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर ४८२००८
मो ९४२५४८४४५२

 

 

 

 

 

( विवेक रंजन श्रीवास्तव जी ने रेडियो रूपक , एकांकी ,नाटक , नुक्कड़ नाटक , प्रहसन , नृत्य नाटिकायें आदि लिखी हैं . आपकी नाटको की पुस्तकें प्रकाशित भी हैं तथा इंटरनेट पर भी आपके नाटक सुलभ हैं . नाटको पर आपको पुरस्कार भी मिले हैं तथा आपके नाटक स्कूलो में मंचित भी हुये हैं . "ऐसे बनती है बिजली" , "एक मात्र नदी जिसकी परिक्रमा की परम्परा है ..नर्मदा" , "घुघुआ के जीवाश्म" आदि उनके चर्चित रेडियो रूपक रहे हैं . उनके नाटक "हिंदोस्तां हमारा" , "स्थिति नियंत्रण में है" , "गांधी" , "अमर शहीद उदय" , "वाह ताज " आदि डीपीएस लखनऊ , केंद्रीय विद्यालय रायबरेली , ज्ञानदीप मण्डला आदि स्कूलो में मंचित होते रहे हैं . उनका नुक्कड़ नाटक "जादूशिक्षा का" जिला शिक्षा केंद्र मण्डला तथा कला पथक के कलाकारों ने अनेक चौराहो पर अभिनित किया है . यह नुक्कड़ नाटक म. प्र. शासन के अदिवासी शिक्षा विभाग द्वारा प्रथम पुरुस्कार प्राप्त है . इसे जिला पंचायत मण्डला ने पुस्तिका के रूप में प्रकाशित करवाकर वितरित भी किया है . कथक दल मण्डला व कोलकाता द्वारा उनकी लिखित नृत्य नाटिकायें "मेघदूत" , "जय प्रिय जननी भारत माता" आदि पर नृत्य प्रस्तुतियां भी की गईं हैं . हिंदोस्तां हमारा व अन्य नाटको का संग्रह पुस्तक के रूप में प्रकाशित है .)

 

 



हिन्दी नाटको का मूल संस्कृत से ही है .संस्कृत में विश्व की सबसे प्राचीन नाट्य परम्परा मिलती है . जो रचना श्रवण द्वारा ही नहीं अपितु दृष्टि द्वारा भी दर्शकों के हृदय में रसानुभूति कराती है उसे नाटक या दृश्य-काव्य कहा गया है . नाटक में श्रव्य काव्य से अधिक रमणीयता होती है . नाट्यशास्त्र में लोक चेतना को नाटक के लेखन और मंचन की मूल प्रेरणा माना गया है .

 


भरतमुनि का नाटयशास्त्र इस विषय का सबसे प्राचीन ग्रंथ है . अग्निपुराण में भी नाटक के लक्षण आदि का निरूपण है . साहित्यदर्पण में नाटक के लक्षण, भेद आदि अधिक स्पष्ट रूप से दिए हैं .

 


पारम्परिक लम्बे नाटको के अभिनय आरंभ होने के पहले जो मंगलाचरण होता है, उसे पूर्वरंग कहते हैं . पूर्वरंग के उपरांत प्रधान नट या सूत्रधार, जिसे स्थापक भी कहते हैं, आकर सभा की प्रशंसा करता है ,फिर नट, नटी सूत्रधार इत्यादि परस्पर वार्तालाप करते हैं जिसमें खेले जाने वाले नाटक की विषय वस्तु , नाटककार के कवि-वंश-वर्णन आदि पर चर्चा होती हैं . नाटक के इस अंश को प्रस्तावना कहते हैं . जिस इतिवृत्त को लेकर नाटक रचा जाता है उसे 'विषय वस्तु' कहते हैं जैसे, रामलीला में राम का चरित्र . नाटक के मुख्य नायक के साथ प्रसंगवश जिन पात्रो के चरित्र का वर्णन होता है उसे प्रासंगिक चरित्र कहते हैं; जैसे राम के साथ सुग्रीव, आदि का चरित्र . समय के परिवर्तन के साथ आजकल जो नए नाटक लिखे जाते हैं उनमें संस्कृत नाटकों के इन सब नियमों का पालन अनावश्यक हो चला है , अब अन्य विधाओ के साथ साथ नाट्य विधा भी शास्त्र के बंधनो से मुक्त है . पाश्चात्य शैली के प्रभाव भी हिन्दी नाटको में स्पष्ट परिलक्षित हो रहे हैं . नये नये नाटककार नये नये प्रयोग कर रहे हैं . यद्यपि यह भी सच है कि आज नाटक अपेक्षकृत कम लिखे जा रहे हैं . लोगो की बदलती अभिरुचि के चलते जीवंत नाट्य प्रस्तुति की जगह कैमरे में कैद संपादित फिल्म या धारावाहिक ज्यादा लोकप्रिय हैं .

 

 


कथावस्तु , नाटक के पात्र , रस , तथा अभिनय नाटक के प्रमुख तत्व होते हैं . पौराणिक, ऐतिहासिक, काल्पनिक या सामाजिक विषय नाटक की कथावस्तु हो सकते हैं . कथा वस्तु को नाटक के माध्यम से दर्शको के सम्मुख प्रस्तुत करके नाटककार विषय को संप्रेषित करता है .ऐतिहासिक नाटको में कथावस्तु सामान्यतः ज्ञात होती है पर फिर भी दर्शक के लिये नाटक में जिज्ञासा बनी रहती है , और इसका कारण पात्रो का अभिनय तथा नाटक का निर्देशन होता है . नाटक की कथा वस्तु का दर्शको तक संप्रेषण तभी सजीव होता है जब नाटक के पात्रों व विशेष रूप से कथावस्तु के अनुरूप नायक व अन्य पात्रो का चयन किया जावे . यह दायित्व नाटक के निर्देशक का होता है . पात्रों की सजीव और प्रभावशाली प्रस्तुति ही नाटक की जान होती है . नाटक में नवरसों में से आठ का ही परिपोषण होता है . शांत रस नाटक के लिए निषिद्ध माना गया है , वीर या श्रंगार में से कोई एक नाटक का प्रधान रस होता है . अभिनय नाटक का प्रमुख तत्व है. इसकी श्रेष्ठता पात्रों के वाक्चातुर्य और अभिनय कला पर निर्भर है . मुख्य रूप से अभिनय ४ प्रकार का होता है .

 


सर्व प्रथम आंगिक अभिनय अर्थात हाथ पैर , चेहरे के के हाव भाव से किया जाने वाला अभिनय , दूसरा वाचिक अभिनय अर्थात संवाद का अभिनय , स्वर में उतार चढ़ाव एवं संवाद को स्मृति के आधार पर निर्देशक की अपेक्षा के अनुरूप प्रस्तुत करना . विशेष रूप से रेडियो नाटकों में वाचिक अभिनय बहुत ही महत्वपूर्ण हो जाता है , क्योकि वहां नाटक दृश्य की जगह केवल श्रव्य विधा बनकर रह जाता है . तीसरा , आहार्य अभिनय मतलब वेषभूषा, मेकअप, स्टेज सज्जा, प्रकाश व्यवस्था आदि होता है , जिसके लिये मंच सहायक जबाबदार होते हैं . चौथा , सात्विक अभिनय अर्थात पात्रो द्वारा संवाद के रस के अनुसार व चरित्र के अनुरूप पात्र द्वारा आत्मा से किया गया अभिनय होता है . जब पात्र नाटक के चरित्र से एकात्म हो जाता है तो वह ऐसा सात्विक अभिनय कर पाता है .

 


नाटक के इतिहास को प्राचीन काल , मध्यकाल , आधुनिक काल में बांटा जा सकता है . भारत में अभिनय-कला और रंगमंच का इतिहास वैदिक काल से ही मिलता है . बहुत प्राचीन समय से भारत में संस्कृत नाटक , धार्मिक अवसरों, सांस्कृतिक पर्वों, सामाजिक समारोहों की विशेषता रहे हैं . जब संस्कृत राजकीय बोलचाल की भाषा नहीं रही तो संस्कृत नाटकों का मंचीकरण भी समाप्त प्राय हो गया. भरत मुनि का नाटयशास्त्र बहुत पुराना ग्रंथ है । रामायण, महाभारत इत्यादि में नट और नाटक का उल्लेख है . पाणिनि ने 'शिलाली' और 'कृशाश्व' नामक दो नट सूत्रकारों के नामो का उल्लेख किया है . शिलाली का नाम शुक्ल यजुर्वेदीय शतपथ ब्राह्मण और सामवेदीय अनुपद सूत्र में मिलता हैं . विद्वानों ने ज्योतिष की गणना के अनुसार शतपथ ब्राह्मण को ४००० वर्ष से अधिक प्राचीन बतलाया है . अतः कुछ पाश्चात्य विद्वानों की यह राय कि ग्रीस या यूनान में ही सबसे पहले नाटक का प्रादुर्भव हुआ, ठीक नहीं है . विल्सन आदि पाश्चात्य विद्वानों ने स्वीकार किया हैं कि हिंदुओं ने अपने यहाँ नाटक का प्रादुर्भाव स्वयं ही किया था . छत्तीगढ़ में सरगुजा एक पहाड़ी स्थान है, वहाँ एक गुफा के भीतर एक भव्य रंगशाला के चिह्न पाए गए हैं . यह सही है कि यूनानियों के आने के पूर्व के संस्कृत नाटक आज उपलब्ध नहीं हैं , संभव है, कलासंपन्न युनानी जाति से जब हिंदू जाति का मिलन हुआ हो तब संस्कृतियो के सम्मिलन में नाटक के संबंध में कुछ बातें हिंदुओं ने भी यूनानी संस्कृति से ली हों .

 


मध्यकाल में प्रादेशिक भाषाओं में लोकनाट्य का उदय हुआ। यह विचित्र विरोधाभास है कि मुस्लिम शासन काल में जहाँ शासकों की धर्मकट्टरता ने भारत की साहित्यिक रंग-परम्परा को भंग किया वहीं लोकभाषाओं में लोकमंच का प्रसार हुआ . रासलीला, रामलीला तथा नौटंकी आदि के रूप में लोकधर्मी नाट्यमंच बना रहा . भक्तिकाल में एक ओर तो ब्रज प्रदेश में कृष्ण की रासलीलाओं का ब्रजभाषा में अत्यधिक प्रचलन हुआ और दूसरी और विजयादशमी के अवसर पर समूचे भारत के छोटे-बड़े नगरों में रामलीला बड़ी धूमधाम से मनाई जाने लगी . साहित्यिक दृष्टि से मध्यकाल में कुछ संस्कृत नाटकों के पद्यबद्ध हिन्दी छायानुवाद भी हुए, जैसे नेवाज कृत ‘अभिज्ञान शाकुन्तल’, सोमनाथ कृत ‘मालती-माधव’, हृदयराम रचित ‘हनुमन्नाटक’ आदि; कुछ मौलिक पद्यबद्ध संवादात्मक रचनाएँ भी हुईं, जैसे लछिराम कृत ‘करुणाभरण’, रघुराम नागर कृत ‘सभासार’ , गणेश कवि कृत ‘प्रद्युम्नविजय’ आदि; पर इनमें नाटकीय पद्धति का पूर्णतया निर्वाह नहीं हुआ। ये केवल संवादात्मक रचनाएँ ही थीं . इस प्रकार साहित्यिक दृष्टि तथा साहित्यिक रचनाओं के अभाव के कारण मध्यकाल में साहित्यिक रंगकर्म की कोई विशेष श्री वृद्धि नहीं हुई . सच तो यह है कि आधुनिक काल में व्यावसायिक तथा साहित्यिक रंगमंच के उदय से पूर्व हमारे देश में रामलीला, नौटंकी आदि के लोकमंच ने ही चार-पाँच सौ वर्षों तक हिन्दी रंगमंच को जीवित रखा. यह लोकमंच-परम्परा आज तक विभिन्न रूपों में समूचे देश में जीवित है. उत्तर भारत में रामलीलाओं के अतिरिक्त महाभारत पर आधारित ‘वीर अभिमन्यु’, ‘राजा हरिशचन्द्र’ आदि ड्रामे तथा ‘रूप-बसंत’, ‘हीर-राँझा’, ‘हकीकतराय’, ‘बिल्वामंगल’ आदि नौटंकियाँ आज तक प्रचलित हैं.

 


आधुनिक काल में अंग्रेजी राज्य की स्थापना के साथ रंगमंच को प्रोत्साहन मिला. समूचे भारत में व्यावसायिक नाटक मंडलियाँ स्थापित हुईं . नाट्यरंगन की प्रवृत्ति सर्वप्रथम बँगला में दिखाई दी. सन् 1835 ई. के आसपास कलकत्ता में कई अव्यावसायिक रंगशालाओं का निर्माण हुआ. कलकत्ता के कुछ सम्भ्रान्त परिवारों और रईसों ने इनके निर्माण में योग दिया था यह सब व्यावयायिक नाटक मंडलियों के असाहित्यिक प्रयास से भिन्न था.बँगला के इस नाट्य-सृजन और नाट्यरंगन का उल्लेख इसलिए महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के रंगांदोलन को इसी से दशा, दिशा और प्रेरणा मिली . बँगला के इस आरम्भिक साहित्यिक प्रयास में जो नाटक रचे गए वे मूल संस्कृत या अंग्रेजी नाटकों के छायानुवाद या रूपान्तर थे. भारतेन्दु का आरम्भिक प्रयास भी संस्कृत नाटकों के छायानुवाद का ही था . हिन्दी रंगमंचीय साहित्यिक नाटकों में सबसे पहला हिन्दी गीतनाट्य अमानत रचित ‘इंद्र सभा’ कहा जा सकता है जो सन् 1853 ई. में लखनऊ के नवाब वाजिद अली शाह के दरबार में खेला गया था . इसमें उर्दू-शैली का वैसा ही प्रयोग था जैसा पारसी नाटक मंडलियों ने अपने नाटकों में बाद में अपनाया. सन् 1862 ई. में काशी में ‘जानकी मंगल’ नामक विशुद्ध हिन्दी नाटक मंचित किया गया था .
साहित्यिक रंगमंच के उपर्युक्त छुटपुट प्रयासो से बहुत आगे बढ़कर पारसी मंडलियों-ओरिजिनल विक्टोरिया, एम्प्रेस विक्टोरिया, एल्फिंस्टन थियेट्रिकल कम्पनी, अल्फ्रेड थियेट्रिकल तथा न्यू अलफ्रेड कम्पनी आदि-ने व्यावसायिक रंगमंच बनाया . सर्वप्रथम बंबई और बाद में हैदराबाद, लखनऊ, बनारस, दिल्ली लाहौर आदि कई केन्द्रों और स्थानों से ये कम्पनियाँ देश-भर में घूम-घूमकर हिन्दी नाटकों का प्रदर्शन करने लगीं. इन पारसी नाटक मंडलियों के लिए पहले-पहल नसरबानी खान साहब, रौनक बनारसी, विनायक प्रसाद ‘तालिब’, ‘अहसन’ आदि लेखकों ने नाटक लिखे. जनता का हल्का फुल्का मनोरंजन और धनोपार्जन ही इन कम्पनियों का मुख्य उद्देश्य था. यही कारण था कि शुद्ध साहित्यिक नाटकों से इन नाटक ग्रुपों का विशेष प्रयोजन नहीं था. धार्मिक-पौराणिक तथा प्रेम-प्रधान नाटकों को ही ये अपने रंगमंच पर दिखाती थीं. सस्ते और अश्लील प्रदर्शन करने में भी इन्हें जरा संकोच नहीं था . भड़कीली-चटकीली वेशभूषा, पर्दों की नई-नई चित्रकारी तथा चमत्कारपूर्ण दृश्य-विधान की ओर इनका अधिक ध्यान रहता था. संगीत-वाद्य का आयोजन स्टेज के सामने के हिस्से में होता था. बीच-बीच में शायरी, गजलें और तुकबन्दी खूब चलती थी, भाषा उर्दू-हिन्दी का मिश्रित रूप थी . संवाद पद्य-रूप तथा तुकपूर्ण होते थे. राघेश्याम कथा वाचक, नारायणप्रसाद बेताब, आगाहश्र कश्मीरी, हरिकृष्ण जौहर आदि कुछ ऐसे नाटककार भी हुए हैं जिन्होंने पारसी रंगमंच को कुछ साहित्यिक पुट देकर सुधारने का प्रयत्न किया है और हिन्दी को इस व्यावसायिक रंगमंच पर लाने की चेष्टा की, पर व्यावसायिक वृत्ति के कारण संभवत: इस रंगमंच पर सुधार संभव नहीं था.
आधुनिक काल में रेडियो की तकनीकी उपलब्धता ने रेडियो नाटक तथा रेडियो रूपक जैसी सर्वथा नई नाट्य विधाओ को जन्म दिया. रेडियो में केवल आवाज ही संप्रेषित होती है अतः रेडियो नाटक तथा रेडियो रूपक दृश्य न होकर केवल श्रव्य विधा होती है . इसलिये उसके लेखन में श्रोता को दृश्यो का अहसास भी आवाज के माध्यम से ही कराना पड़ता है , यह रेडियो के लिये लेखन में सबसे बड़ी सावधानी रखनी होती है . पात्रो को अपनी आवाज के उतार चढ़ाव से ही नाटक या रूपक के भावो को व्यक्त करना होता है ,अतः संवाद लेखन एवं उनकी प्रस्तुति का महत्व बहुत बढ़ जाता है . विविध भारती लंबे समय से हवा महल नामक कार्यक्रम में रेडियो नाट्य प्रस्तुतियां प्रसारित कर रहा है . हिन्दी रेडियो नाटक के क्षेत्र में यह संभवतः कीर्तिमान ही है . जिस तरह फीचर फिल्म और वृत्त चित्र होते हैं उसी तरह रेडियो के लिये रेडियो नाटक व रेडियो रूपक समानान्तर हैं .रेडियो नाटक मनोरंजक होते हैं तो रेडियो रूपक ज्ञानवर्धक , सूचनात्मक व वर्णनात्मक होते हैं .
लघु नाटक एकांकी कहे जाते हैं . सामान्यतः नाटको में पर्दा गिरता है .. दृश्य बदलता है ..कई निर्देशक पर्दा गिराने उठाने की अपेक्षा लाइट बंद करके ही दृश्य बदलकर पुनः नाटक के अगले अंक दिखाते हैं , मतलब नाटक में कई अंक होते हैं . किन्तु छोटे नाटक जिनमें १५ या २० मिनट में ही , एक ही अंक में कथ्य प्रस्तुत कर दिया जाता है , एकांकी नाटक कहे जाते हैं . यदि इन छोटी एकांकियो में हास्य प्रस्तुति ही विषय वस्तु हो तो उसे प्रहसन कहा जाता है . इसी तरह नृत्य नाटिकायें प्रस्तुति की एक बहुत बड़ी विधा है . क्योकि इनमें कथक , या अन्य पारंपरिक नृत्य एक संगीतमय कथा में पिरो कर प्रस्तुत किया जाता है , पात्र सामान्यतः केवल नृत्य अभिनय के द्वारा ही भाव संप्रेषण करते हैं . गीत संगीत नेपथ्य से गायक वादक कलाकारो की मंडली प्रस्तुत करती है . इस तरह दर्शक मंच से बंधा हुआ मन मुग्ध बना रहता है .
नुक्कड़ नाटक भी नाटको की एक अति लोकप्रिय विधा है . प्रदर्शन स्थल के रूप में किसी सार्वजनिक स्थल पर एक घेरा, दर्शकों और अभिनेताओं का अंतरंग संबंध और सीधे-सीधे दर्शकों की रोज़मर्रा की जिंद़गी से जुड़े कथानकों, घटनाओं और नाटकों का मंचन, यह नुक्कड़ नाटको की विशेषता है . लव और कुश नाम के दो कथावाचकों के माध्यम से रामायण महाकाव्य को जगह-जगह जाकर, गाकर सुनाने की परंपरा का उल्लेख पौराणिक ग्रंथो में मिलता है . ये लव-कुश राम के पुत्रों के रूप में तो प्रसिद्ध हैं ही, बाद में इन्हीं के समानांतर नट या अभिनेता को भी हमारे यहां कुशी लव के नाम से ही जाना जाने लगा. संभवत: यही कारण है कि नाटकों के लगातार खुले में मंचित होते रहने के मद्देनज़र भरत ने भी अपने नाट्यशास्त्र में दशरूपक विवेचन के अंतर्गत 'वीथि' नामक रूपक का भी उल्लेख किया है. आज भी आंध्र प्रदेश में लोकनाट्य में वीथि नाटक शैली के नाटक किये जाते हैं जो नुक्कड़ नाटको का ही नाम है . वर्णन मिलता है कि आज से लगभग ढ़ाई-तीन हज़ार वर्ष पहले यूनान में थेस्पिस नामक अभिनेता घोड़ागाड़ी या भैसागाड़ी में सामान लादकर, शहर-शहर घूमकर सड़कों पर, चौराहों पर अथवा बाज़ारों में अकेला ही नाटकों का मंचन किया करता था. यह पाश्चात्य जगत में नुक्कड़ नाटको का इतिहास बताता है . बिना अधिक ताम झाम के कथ्य की रोचकता बिना टिकिट , बिना किसी पूर्व नियोजन के राहगीर को अपनी ओर खींच लेना, नुक्कड़ नाटको की खासियत है .

 


हिन्दी सिनेमा में अमोल पालेकर , फारूख शेख , शबाना आजमी जैसे अनेक कलाकार मूलतः नाट्य कलाकार ही रहे हैं . किन्तु नाट्य प्रस्तुतियो के लिये सुविधा संपन्न मंचो की कमी , नाटक से जुड़े कलाकारो को पर्याप्त आर्थिक सुविधायें न मिलना आदि अनेकानेक कारणो से देश में सामान्य रूप से हिन्दी नाटक आज दर्शको की कमी से जूझ रहा है . लेकिन मैं फिर भी बहुत आशान्वित हूं , क्योकि सब जगह हालात एक से नही है . जबलपुर में ही तरंग जैसा प्रेक्षागृह , विवेचना आदि नाट्य संस्थाओ के समारोहो में दर्शको से खचाखच भरा रहता है . सच कहूं तो नाटक के लिये एक वातावरण बनाने की जरूरत होती है .जबलपुर में यह वातावरण बनाया गया है . यहाँ नाटक अभिजात्य वर्ग में अति लोकप्रिय विधा है . सरकारें नाट्य संस्थाओ को अनुदान दे रहीं हैं .हर शहर में नाटक से जुड़े , उसमें रुचि रखने वाले लोगो ने संस्थायें या इप्टा अर्थात इंडियन पीपुल थियेटर एसोशियेशन जैसी १९४३ में स्थापित राष्ट्रीय संस्थाओ की क्षेत्रीय इकाइयां स्थापित की हुई हैं . और नाट्य विधा पर काम चल रहा है . वर्कशाप के माध्यम से नये बच्चो को अभिनय के प्रति प्रेरित किया जा रहा है . पश्चिम बंगाल व महाराष्ट्र में अनेक निजी व संस्थागत नाट्य गृह संचालित हैं , दिल्ली में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय , भोपाल में भारत भवन आदि सक्रिय संस्थाये इस दिशा में अपनी भूमिका का निर्वाह कर रही हैं .नाटक के विभिन्न पहलुओ पर पाठ्यक्रम भी संचालित किये जा रहे हैं . जरूरत है कि नाटक लेखन को और प्रोत्साहित किया जावे क्योकि आज भी जब कोई थियेटर ग्रुप कोई प्ले करना चाहता है तो उन्ही पुराने नाटको को बार बार मंचित करना पड़ता है . मेरे पास कई शालाओ के शिक्षको के फोन आते हैं कि वे विशेष अवसरो पर नाटक करवाना चाहते हैं पर उस विषय का कोई नाटक नही मिल रहा है , वे मुझसे नाटक लिखने का आग्रह करते हैं , मैं बताऊ मेरे अनेक नाटक ऐसी ही मांग पर लिखे गये हैं . मेरे नाटक पर इंटरनेट के माध्यम से ही संपर्क करके कुछ छात्रो ने फिल्मांकन भी किया है . संभावनायें अनंत हैं . आगरा में हुये एक प्रयोग का उल्लेख जरूरी है , यहां १७ करोड़ के निवेश से अशोक ओसवाल ग्रुप ने एक भव्य नाट्यशाला का निर्माण किया है , जहां पर "मोहब्बत दि ताज" नामक नाटक का हिन्दी व अंग्रेजी भाषा में भव्य शो प्रति दिन वर्षो से जारी है , जो पर्यटको को लुभा रहा है . अर्थात नाटको के विकास के लिये सब कुछ सरकार पर ही नही छोड़ना चाहिये समाज सामने आवे तो नाटक न केवल स्वयं संपन्न विधा बन सकता है वरन वह लोगो के मनोरंजन , आजीविका और धनोपार्जन का साधन भी बन सकता है .

 

 

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