दिन-रात हूँ अधूरा
परवान प्यार का चढ़ा,
ग़ुलाब रोपकर बढा।
गुलाब की थी डाली,
मिट्टी ने संभाली।
जैसे हरा भरा दिखा,
ग़ुलाब सोचने लगा ।
खोजने था निकला,
ज्यों ही यह खिला था।
रिश्ते जहाँ थे पनपे,
बिजली वही गिरी थी।
कल सूखने का डर था,
आज खिलने से खपा हूँ।
करवट जिधर बदलता,
तेरा नाम जप रहा हूँ।।
अब रात मुझको घूरे,
आवास है अधूरा।
प्यार के झरोखे में,
आवाज गूँजे पूरा।
प्रकाश है अधूरा,
पर प्यार मेरा पूरा।
चाहतों में अब भी,
दिन-रात हूँ अधूरा।
आँसू टपक रहा है,
डरने लगा हूँ ख़ुद से।
कहीं साँस थम न जाए,
तेरा नाम बिन पुकारे।
कहीं आँख मूँद न लूँ ,
मुखड़ा बग़ैर निहारे।।
-ज़हीर अली सिद्दीक़ी
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