प्रतिशोध के ज्वाला में..
प्रतिशोध एक चिनगारी से,
सुलग सुलग कर जलता है।
उस ज्वाला से निकला धुआँ,
ख़ुद के आँखों में पड़ता है।।
आंखों में पड़ते ही धुआँ,
अंधेरा सम्मुख छा जाता है।
उस अंधेरे में मानव अक्सर,
अंधकार नया कर जाता है।।
प्रतिशोध के ज्वाला में मानव,
अक्सर अंधा हो जाता है।
उस अंधेपन की आंधी में,
जाने क्या क्या कर जाता है।।
उस अंधेरे की राह अलग,
हर दीप भभक बुझ जाता है।
परमार्थ मार्ग से अलग थलग,
अहंकार मार्ग हो जाता हैं।।
अहंकार के चंगुल फँसते ही,
सफल विफल हो जाता है।
व्यवहार बदल सज्जन प्राणी,
दानव सा दिखने लगता है।।
ज़हीर अली सिद्दीक़ी
पी-एच. डी. (शोधरत)
आय. सी. टी. मुम्बई-४०००१९
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