Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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तुम्हारे फूल

 

तुम्हारे फूलों ने जब
मेरी सुबह की पहली साँसें महकायीं
मैंने चाहा था,
उसी वक्त तितली बन जाऊँ
मंडराऊँ खूब
उन ख़ुशबू भरे खिलखिलाते रंगों पर
बहकूँ सारा दिन उसी की महक से
महकूँ सारी रात उसी की लहक से
खुद को बटोरकर
उस गुलदस्ते का हिस्सा बन जाऊँ
अपने घर को महकाऊँ
पड़ी रहूँ दिन रात उसे लपेटे
बिखेरूँ
या सहेजूँ उसकी पंखुड़ियाँ
सजा लूँ उससे अपने अस्तित्व को
या सज लूँ मैं
कि वो हो
या ये
मैं चाह रही हूँ अब भी
अपनी पंक्तियों की शुरुआत
जो हो अंत से अनजान।      

 

 

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