तुम्हारी याद
-अजन्ता शर्मा
तुम्हारी याद आते आते कहीं उलझ जाती है,
जैसे चाँद बिल्डिंगों में अंटक गया हो कहीं,
मेरे रास्ते तनहा तय होते हैं,
सपाट रोड और उजाड़ आसमान के बीच.
कुहासों की कुनकुनाहट,
भौंकते कुत्ते सुनने नही देते.
हवा गुम गई है.
पत्थर जम गए हैं.
रातें सर्द हैं.
सिर्फ़ बर्फ हैं.
अब तुम्हारे हथेलियों की गरमाहट कहाँ?
जिससे उन्हें पिघलाऊँ?
और बूँद-बूँद पी जाऊं!
नशे मे,
रंगीन रात की प्रत्यंचा पर तीर चढाऊँ, बौराऊँ !
अब तो
सिर्फ़ बिंधा हुआ आँचल है,
जिसकी छेद से जो दिखता है,
वही गंतव्य है, दिशा है,
मैं उसी ओर चलती हूँ,
अंटके हुए चाँद को,
कंक्रीटों में ढूँढती हूँ.
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