आस छूटी बिन मदद असहाय हाथों को मला|
प्रियतमा का संक्रमित शव धार कांधे ले चला|
लोग फोटो खींचते थे, किन्तु वह चलता रहा,
प्यार ऐसा आज तक हमने नहीं देखा भला||
मृत्यु पर व्यापार देखें, स्वार्थ ऐसा, क्या कहें|
और बाकी देखना क्या, दुःख यह कैसे सहें?
मौत भारी एक कांधा, आठ मीलों ढो चला,
बोल सकते यदि नहीं तो मौन हो चुप ही रहें||
देख इसकी दुर्दशा, जो हैं द्रवित वे बोल दें|
स्वार्थ से मुख मोड़कर, इस वेदना का मोल दें|
कुछ करें ऐसा कि दीना अब न कोई हो विवश,
हास्पिटल अब एक उसके गाँव में ही खोल दें||
--इंजी० अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'
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