बजा चुनावी जो बिगुल, पांच साल के बाद..
नतमस्तक नेता हुए, स्वप्न वाद प्रतिवाद..
जनता को अब है मिला, थोड़ा सा आराम.
चमचे व्यस्त चुनाव में. गुंडे करें सलाम..
समझ समझदारी यहाँ, यद्यपि सबमें मित्र.
लाचारी है स्वार्थवश, दुनिया बहुत विचित्र..
यह जग सुन्दर साथियों, किन्तु छलावा प्यार.
दल दल में दलदल यहाँ, बचकर निकलें यार..
मस्ती में मजदूर जब दो सौ मिले पगार.
आप विधायक रो रहे, पाकर आठ हजार..
निज वेतन भत्ते बढ़ा, हर गरीब का चीर.
स्वर्गिक जीते जिन्दगी, बनें विधायक वीर..
जिसे अन्नदाता कहें, मानें लोग महान.
सूखी रोटी तक नहीं, पाता वही किसान..
जाति, पंथ या धर्म, को देख-देख हो प्रीति.
बाँट-बाँट हो राज्य अब, अंग्रेजों की नीति..
उजले बन संसद चलें, बने गरीबी राह..
राजनीति धन-संपदा, देती मित्र अथाह..
--इंजी० अम्बरीष श्रीवास्तव ‘अम्बर’
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