छल-छंदों ने मारी ठोकर जब भी नाच नचाया है.
सहज बचाकर गोद उठाकर ले उर कंठ लगाया है.
कर्ता-कर्म तुम्ही हो कारक ध्येय हमारे लक्ष्य तुम्हीं,
है अभिमान जकड़ता जब-जब तब-तब मित्र बचाया है..
मंदिर-मंदिर गुरुद्वारे में भावुक मन भरमाया है.
किन्तु न तुमको हमने पाया चाहत ने तड़पाया है.
वृन्दावन जब हृदय बनाया तब वंशी की तान सुनी.
निधिवन मगन बना मन राधा पाया रास रचाया है..
रास रचे 'अम्बर' मन राधा चन्द्रकिरण या धूप लिखूं.
वंशी पर थिरकें अंगुलियाँ, मोहन स्वर रसकूप लिखूं
नयन मुँदे या नेत्र खुले हो तेरी ही छवि आँखों में.
कागज़-कलम उठाऊं जब भी तेरा रूप अनूप लिखूं..
--इंजी० अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'
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