Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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"तू कवि बन न जाना"

 

(नवगीत)

 

 

अजी चाहे जब गीत औरों के गाना
चहकना बहकना व सीटी बजाना
गुसलखाने में मस्त हो गुनगुनाना
मगर मेरे भाई तू कवि बन न जाना

 

कविता बहुत से सुनाते मिलेंगें
ग़ज़ल गीत रच-रच के गाते मिलेंगें
सभी जख्म अपने दिखाते मिलेगें
बहत्तर में जोड़ी बनाते मिलेगें
भला गर जो चाहो तो बचना-बचाना
मगर मेरे भाई तू कवि बन न जाना

 

अधिकतर मिले मुक्त कविता सुनाते
अटकते गटकते व छाती फुलाते
नई कविता पढ़कर गज़ब मुस्कुराते
स्वयं को ही छलकर निराला बताते
अगर लाज आये कभी मत लजाना
मगर मेरे भाई तू कवि बन न जाना

 

पुराने रिवाजों में अब क्या धरा है
रचा छंद जिसने वो पहले मरा है
नहीं शिल्प जाने तभी मन डरा है
सो छंदों से भागे गला बेसुरा है
भले चुटकुलों से ही खाना-कमाना
मगर मेरे भाई तू कवि बन न जाना

 

समर्पित हों जब छंद निर्मल रचेगें
तो लय नाद लालित्य झंकृत करेगें
बहे शब्द सरिता तो तालिब बनेगें
बहर में कहें मीर ग़ालिब बनेगें
डकैती ही बेहतर इन्हें मत चुराना
मगर मेरे भाई तू कवि बन न जाना

 

है मंचों की महिमा बहुत ही निराली
मजे में है चलती मजे की दलाली
मिला जब भी मौक़ा तो पगड़ी उछाली
भँड़ैती जमा दे मिले खूब ताली
तुम्हें मैं बुलाऊँ मुझे तुम बुलाना
मगर मेरे भाई तू कवि बन न जाना

 

 

इंजी० अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'

 

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