Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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आत्मसंयमयोग

 

 (शेष भाग )

• मन के द्वारा तजे कामना, इन्द्रियों का निग्रह करता
• क्रम-क्रम से अभ्यास के द्वारा, सिवा परम उसे कुछ न रुचता

• जहाँ-जहाँ यह मन जाता है, जिस-जिस विषय से यह बंधता
• वहाँ-वहाँ से लौटा लाता, योगी पुनः प्रभु में लगाता

• भली प्रकार शांत है जो मन, पाप रहित, क्रिया शून्य है
• एक हुआ ब्रह्म के सँग जो, आनन्दित वह योगी धन्य है

• पापरहित वह योगी ऐसा, आत्मा को परम में लगाता
• सुख का अक्षय कोष पा गया, सदा परम के सँग ही रहता

• सर्वव्यापी अनंत चेतना, जिसमें योगी स्थित रहता
• निज आत्मा में हर एक को, सबमें निज स्वरूप देखता

• मैं व्यापक हूँ सब भूतों में, सब प्राणी मुझमें ही रहते
• जो ऐसा जानता योगी, मैं उसको वह मुझको देखे

• सबके भीतर आत्मरूप से, तत्व एक ही व्याप रहा है
• जग में होकर भी मुझमें है, जो योगी ऐसा जान सका है

• आत्मरूप से सबको देखे, सुख-दुःख भी सबमें सम देखे
• वही परम श्रेष्ठ योगी है, जो सर्वत्र परम को देखे

• अर्जुन उवाचः

• हे मधुसूदन !
• समभाव का योग है सुंदर, लेकिन मेरा मन चंचल है
• कैसे मन को सदा टिकाऊँ, टिकता नहीं यह पल भर है

• मन बड़ा बलवान है केशव, इसे रोकना दुस्तर भारी
• वायु रोकना जैसे न संभव, मन को कैसे रोकूँ मुरारी

• केशव बोले माना अर्जुन, मन का ऐसा ही स्वभाव है
• वश में होता है मुश्किल से, मन का ऐसा ही प्रभाव है

• वैराग्य, अभ्यास से लेकिन, वश में इसको कर सकता
• वैरागी को योग प्राप्त है, जो सदा अभ्यास है करता

• अर्जुन उवाचः
• जिसकी श्रद्धा है योग में, किन्तु न संयम रख पाता है
• अंतकाल में भटक गया जो, कैसी वह गति पाता है

• क्या वह परम को न पाकर, आश्रय रहित नहीं हो जाता
• नष्ट हुए बादल सा वह भी, नष्ट व्यर्थ नहीं हो जाता

• हे केशव यह संशय मेरा, आप ही इसका छेदन कर दें
• और न कोई कह पायेगा, आप ही भ्रम का भेदन कर दें

 

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