Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

अष्टमोऽध्यायः अक्षरब्रह्मयोग (शेष भाग)

 

सब इन्द्रियों के द्वार रोककर, मन को रख हृदय केन्द्र में प्राणों को ले जा मस्तक में, ऊँ कह जो देह त्यागे
ऐसा नर मुझे ही पाता, ब्रह्म का चिंतन जो करता परमगति को प्राप्त हुआ वह, साधक मुक्ति को पाता
मुझ पुरुषोत्तम को जो भजता, सुलभ सदा उसे मैं रहता नित्य निरंतर युक्त वह मुझमें, सहज उसे मैं हूँ मिलता
परम सिद्धि को प्राप्त हुआ वह, नहीं लौटता इस जग में प्राप्त मुझे वह कर लेता, जो ध्याता है मुझको मन में
ब्रह्म लोक तक भी पहुँचा हो, पुनः उसे लौटना पड़ता किन्तु मुझे जो प्राप्त हो गया, उसका पुनर्जन्म न होता
मैं हूँ कालातीत, शाश्वत, ब्रह्म लोक तक सभी अनित्य काल के द्वारा सीमित हैं ये, परम ब्रह्म मैं ही नित्य
एक हजार युग की अवधि का, ब्रह्मा का इक दिन होताएक हजार युग की अवधि की, ब्रह्मा की रात्रि होती
ब्रह्मा का जब दिन होता, सारे जीव व्यक्त होते हैंब्रह्मा की रात्रि काल में, पुनः जीव अव्यक्त हैं होते
यही भूत समुदाय पुनः पुनः, प्रकृति के वश में आता प्रकट हुआ करता दिन में, रात्रि में विलीन हो जाता
उस अव्यक्त से परे एक है, परम विलक्षण इक अव्यक्त परा, सनातन भाव श्रेष्ठ वह, नष्ट हुए सब वही शाश्वत
वह अव्यक्त कहाए अक्षर, उसे ही परम गति कहतेउस सनातन परम धाम को, प्राप्त हुए नर मुक्ति पाते
जिसके भीतर हैं सब प्राणी, जिससे यह संसार भरा हैउस सनातन परम पुरुष को, भाव से ही पा सकते हैं

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ