Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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भगवदगीता का भावानुवाद(द्वितीय अध्याय

 

कृष्ण कह उठे तब अर्जुन से, मोह ग्रस्त तू क्यों होता है ?
ऐसा विकट काल आया है, हे पार्थ ! तू क्यों रोता है ?
है मोह सदा ही दुखदायी, अपकीर्ति बढ़ाने वाला
तज कायरता और मूढ़ता, है मोह गिराने वाला
किन्तु मोह अर्जुन का भारी, सीख अनसुनी कर दी
कहा न शस्त्र उठाऊंगा मैं, भीख मांग कर लूँगा जी
मैं निहत्था ही खड़ा रहूँगा, वार झेलने सब उनके
राज्य सुख के लोभ में आकर, हरने चला प्राण जिनके
भ्रमित हो गया है मन मेरा, धर्म-अधर्म नहीं सूझता
हे केशव ! राह दिखाओ, बुद्धि को कुछ नहीं बूझता
कृष्ण देख हालत अर्जुन की, मन ही मन कुछ मुस्काए
शोक अविद्या के कारण है, आत्म ज्ञान ही हर पाए
शांत भाव ले उर में बोले, सदा से हैं हम सदा रहेंगे
ये राजा, ये सारी सेना, बार बार यहाँ जन्मेंगे
न जीवित ही न मृत प्राणी, शोक का कारण बन सकते
जिन्हें आत्मा का ज्ञान है, वे न कभी चिंतित होते
जीवन-मृत्यू भ्रम हैं दोनों, मरता नहीं है कभी आत्मा
देह बदलता है जीव पर, सदा शाश्वत है आत्मा
जैसे कोई वस्त्र बदलता, देही देह बदल लेता है
जीर्ण-शीर्ण तन तज के प्राणी, नूतन तन धर लेता है
असत की सत्ता ही न मानो, सत का तो अभाव नहीं
व्याप रही जो सत आत्मा, असत तन में नाश नहीं
है अजन्मा, अविनाशी यह. नित्य शाश्वत सदा आत्मा
नाश देह का, पर रहता है, सदा अमर यह मुक्त आत्मा
शस्त्र काट न सकें रूह को, जला नहीं सकती अग्नि
पवन सुखा न पाए इसको, जल से भीग नहीं सकती
मन-इन्द्रियां, सुख-दुःख पाते, सहना सीख समान भाव से
कितने ही हों, हैं अनित्य ये, अविनाशी तू आत्मभाव से
जनम से पहले कहाँ छिपा था, बाद मृत्यु के कहाँ रहेगा
मध्य काल में ही गोचर जो, कौन उसे फिर सत्य कहेगा
मृत्यु हुई तो स्वर्ग मिलेगा, विजय हुई राज्य सुख पाए
कायर बन यदि युद्ध से भागा, अपकीर्ति ही हाथ में आये

 

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