Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

द्वादशोऽध्यायः भक्तियोग

 

द्वेषभाव से रहित हुआ जो, स्वार्थ मुक्त सबका प्रेमी
हेतु रहित दयालु, निर्मम, निराभिमान, नहीं सुखी-दुःखी
क्षमावान, संतुष्ट सदा जो, मन-इन्द्रियां वश में जिसके
श्रद्धावान, दृढ विश्वासी, मन, बुद्धि प्रभु अर्पित जिसके
जिससे न कोई उद्विग्न होता, हर्ष, अमर्ष व भय से रहित है
ऐसा भक्त प्रिय अति मुझको, दूजे का सुख देख सुखी है
निराकांक्षी, शुद्ध ह्र्द्यी जो, पक्षपात से रहित, चतुर है
आरम्भों का त्यागी है जो, सुखी सदा वह भक्त प्रिय है
शोक, द्वेष, कामना न करता, जो न अति हर्षित होता है
शुभ-अशुभ कर्मों का त्यागी, प्रेमयुक्त वह भक्त प्रिय है
शत्रु-मित्र समान हैं जिसको, मान-अपमान न विचलित करता
सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख द्वन्द्वों को, होकर अनासक्त सहता
निंदा-स्तुति में सम रहता, मननशील हर हाल में खुश है
जिसको नहीं ममता गृह से भी, स्थिरबुद्धि वह भक्त प्रिय है
इस धर्ममय अमृत वाणी को, श्रद्धावान जो पालन करता
मेरे परायण सदा हो रहता, अतिशय प्रिय मुझे वह लगता

 

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ