निर्मल जैसे शुभ्र हिमालय स्वयं अनंत है व्यक्त न होता यही उहापोह मन को डसता !
एक असीम गीत भीतर है गूंज रहा जो प्रकट न होता यही उहापोह मन को खलता !
खिल न पाता हृदय कुसुम तोकलिका बनकर भीतर घुटता यही उहापोह मन में बसता !
सुरभि निखालिस कैद है जिसकी ज्योति अलौकिक कोई ढकता यही उहापोह लिये तरसता !
सबके उर की यही कहानी कह न पाए कितना कहता देख उहापोह मन है हँसता !
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