पीपल का इक वृक्ष शाश्वत, उर्ध्व मूल, अधो शाखाएं वैदिक स्त्रोत पत्तियां जिसकी, जो जानें ज्ञानी कहलाएं
ऊपर-नीचे फैली डालियाँ, तीनों गुणों से होता सिंचित इन्द्रिय विषय टहनियाँ इसकी, मूल सकाम कर्म से बंधित
कोई जान नहीं पाया है, रूप वास्तविक इस वृक्ष का आदि नहीं अंत न जिसका, है कहाँ आधार इसका
दृढ मूल वाले वृक्ष को, वैराग्य के शस्त्र से काटो खोज करो फिर उस धाम की, जहां से पुनः न वापस आओ
जिस परमेश्वर से उपजा है, जगत वृक्ष यह अति पुरातन उसकी शरण में ही मुक्ति है, जिससे हुआ है यह जग, अर्जुन
मान, मोह नष्ट हुआ है, आसक्ति के दोष से मुक्त नष्ट हुई कामना जिनकी, परमात्मा से जो हैं युक्त
सुखों-दुखों से पर हुए हैं, अविनाशी परमपद पाते जिसे प्राप्त कर मानव जग में, पुनः लौट नहीं आते
मेरी ही शाश्वत अंश हैं, इस जग की सभी आत्माएं मन-इन्द्रियों के वश में आकर, व्यर्थ ही बंधन में पड़ जाएँ
जैसे वायु गंध को हरता, दूर-दूर तक पहुंचाता है जीवात्मा मन को हर ले, नूतन तन में ले जाता है
मन का ले आश्रय आत्मा, इन्द्रियों से विषयों को भोगे तीनों गुणों से युक्त हुआ यह, तन में रह कर यह जग देखे
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