पहले कुछ ऐसा था जमाना
मेहनत और लगन होती थी पूजा
उसके सिवा न था कोई काम दूजा
पर आज कल कुछ ऐसी हवा चली
जिसको न करनी आई चापलूसी
उसकी न दाल गली
चापलूसी जीत रही है दुनिया सारी
छूत की तरह फैल रही है यह बीमारी
चापलूसी की अलग होती है पहचान
आंखो में झूठी चमक लबो पे विषभरी मुस्कान
चाशनी में डूबी होती है जबान
पर अफसोस की ऊंची दुकान के
जैसे फीके पकवान
स्वार्थपूरती पर होती है निगाह
झूठी प्रशंसा करे झूठी वाह वाह
काम की हुई पूर्ति तो सब स्वाहा
चापलूसी का अस्तितव है
जैसे एक परछाई
न कोई अहसास न गहराई
जिसने यह रीत अपनाई
उसकी होती है सुनवाई
..........................................
अंजु जायसवाल
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY