एक नज़्म...पुरानी है वैसे.
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एक रब्त ए वारफ्तगी है कि जो
फ़िक्र ए मर्ग-ओ-फना से दूर लिए जाती है
ख़्वाब है ये कि जोंक है कोई
लहू सीने का चुपचाप पिए जाती है
फ़र्क कुछ है भी नहीं बेहोशी-ओ-बेदारी में
दो क़दम चलते हैं पलट आते हैं
मंज़िलें रोकती हैं कभी तो कभी रस्ते
ख़ुद ब ख़ुद चल के भटक जाते हैं
जीस्त के चंद रोज़ा सफ़र में हमने
अज्ल के कितने ही तमाशे देखे
कौन से और हैं मंज़र अभी फर्दा के पास
देखना है जिसे माज़ी के यहाँ से देखे
उलझनें हैं कि एक शीराज़ा ए ज़ुल्मत है
जो सुलझती हैं तो हैरान किये जातीं हैं
वो मसीहा जो हमारा न तुम्हारा ही हुआ
उसका होना भी हमें यार गंवारा न हुआ
लौट आया किये दैरो हरम से हर बार
बहरो-बर दश्तो-दर कोई सहारा न हुआ
किताबे जीस्त पर लिक्खा किये बयाजे मर्ग
नौ ब नौ कोहे गिराँ रेगे सहरा तलाशते ही रहे
तेशा ब दस्त भटकते रहे उफ़क ता उफ़क
और एक जुदा तर्ज ए बयाँ तराशते ही रहे
इक जुनूं है कि जो भटकाता है
इक खला है कि जो साथ लिए जाती है
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वारफ्तगी : बेखुद करने वाली अपनाइयत, मर्ग-ओ-फ़ना : मौत और ज़िन्दगी, बेदारी : होश, फर्दा : भविष्य, माज़ी : इतिहास, शीराज़ा : कड़ी, शृंखला, ज़ुल्मत : अँधेरा, बहरो-बर : धरती और समन्दर, दस्तो-दर : जंगल और दहलीज़ , रेगे सहरा : रेगिस्तान की रेत, बयाजे मर्ग : मौत का हिसाब किताब, नौ ब नौ : नए से नया, तेशा ब दस्त : हाथ में कुदाल लिए, उफ़क ता उफ़क : क्षितिज के छोरों तक
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