पुस्तक समीक्षा: "आखिर वही हुआ"
कवि: नंदीलाल 'निराश'
यह ग़ज़ल संग्रह केवल कविताओं का संकलन नहीं, बल्कि समाज, राजनीति, मानवीय भावनाओं और जीवन की सच्चाइयों का गहरा चित्रण है। कवि ने अपने शब्दों से समाज की सच्चाइयों को उकेरा है और व्यंग्य व संवेदना के माध्यम से प्रभावशाली अभिव्यक्ति दी है। प्रस्तुत समीक्षा को निम्नलिखित श्रेणियों में विभाजित किया गया है।
1. विषयवस्तु का विस्तार
इस संग्रह की ग़ज़लें विभिन्न सामाजिक, राजनीतिक, दार्शनिक और मानवीय विषयों को समेटे हुए हैं।
राजनीति की विडंबनाएँ ("सियासत भी न चाहे जो सियासत की न ज़र चाहे।")
सामाजिक विसंगतियाँ ("जहाँ बाजार में सच को भला कैसे तलाशोगे, जहाँ हर शख्स करता झूठ की दुकानदारी है।")
व्यक्तिगत भावनाएँ ("जाने किस की याद सताती है मुझको।")
मानवीय रिश्तों की बदलती परिभाषा ("बिखर रही है दिल की दौलत अब क्या होगा बड़े मियां।")
व्यवस्था की असफलता और आमजन की पीड़ा ("हुकूमत आज तक घर के दगाबाजों से हारी है।")
2. सामाजिक और राजनीतिक चेतना
कवि ने समकालीन समाज और राजनीति की सच्चाइयों को बड़ी कुशलता से व्यक्त किया है।
"भूखा वोटर मर जाता तब उसको कंधा देने को, चार नहीं चालीस नहीं सौ दो सौ कंधे चलते हैं।" – चुनावी राजनीति का असली चेहरा।
"अंधी बहरी हुई हुकूमत अब क्या होगा बड़े मियां।" – सत्ता की असंवेदनशीलता पर कटाक्ष।
"नाम का पत्थर लगा है, हो रहे सब काम अच्छे।" – योजनाओं और उनकी वास्तविकता पर व्यंग्य।
3. प्रतीकात्मकता और बिंब विधान
कवि ने ग़ज़लों में प्रतीकों और बिंबों का प्रभावी उपयोग किया है।
"टूटा चश्मा रखे नाक पर भारत स्वच्छ बनाते हैं।" – वास्तविकता और प्रचार की खाई को दर्शाता है।
"चौराहे पर बापू बैठे मोल कर रहे खादी का।" – गांधीजी के विचारों का बाज़ारीकरण।
"राम के जाते ही फिर घर की अहिल्या सिल हुई।" – नारी सशक्तिकरण की अधूरी स्थिति।
4. भाषा की सादगी और प्रभावशीलता
ग़ज़लों की भाषा सरल, प्रवाहमयी और प्रभावशाली है।
आम बोलचाल की भाषा और मुहावरों का प्रयोग ग़ज़लों को जनसामान्य से जोड़ता है।
"आ रहे परिणाम अच्छे, लग रहे हैं ग्राम अच्छे।" – सीधी-साधी भाषा में कटाक्ष।
"खाना पीना सैर सपाटा जब भी होना होता हो, ऐरे गैरे नहीं वहाँ तब खास चुनिंदे चलते हैं।" – तीखा व्यंग्य।
5. शिल्प और काव्यात्मक विशेषताएँ
कवि ने ग़ज़ल के पारंपरिक शिल्प को बनाए रखते हुए इसे आधुनिक संदर्भों से जोड़ा है।
रदीफ़ और काफिया का सुंदर संतुलन।
ग़ज़लें बह्र में हैं, जिससे उनकी लयबद्धता बनी रहती है।
उदाहरण: "अब क्या होगा बड़े मियांँ" – यह रदीफ़ पूरी ग़ज़ल में प्रभावशाली बनकर उभरती है।
6. व्यंग्य और हास्य का संतुलित प्रयोग
गंभीर विषयों को भी कवि ने व्यंग्य और हास्य के माध्यम से प्रभावी बनाया है।
"हम घसीटाराम हैं जो, उन बड़ों के नाम अच्छे।" – सामाजिक असमानता पर कटाक्ष।
"हुकूमत आज तक घर के दगाबाजों से हारी है।" – शासन व्यवस्था पर व्यंग्य।
"जहाँ हर शख्स करता झूठ की दुकानदारी है।" – सत्य की गिरती साख पर व्यंग्य।
7. मानवीय संवेदनाएँ और दर्शन
कवि की ग़ज़लों में दार्शनिकता और भावनात्मक गहराई स्पष्ट दिखती है।
"ख्वाब बदले रंग बदला बेमजा महफ़िल हुई, जब अंधेरों की सभा में रोशनी शामिल हुई।" – अच्छाई और बुराई का संघर्ष।
"कमेरा है हुनर आता है उसको दिल बदलने का, बहुत कुछ वह बदल सकता है सूरत को अगर चाहे।" – परिश्रम और परिवर्तन की ताकत।
"मोहब्बत चीज क्या है पाठ घर वाले पढ़ाते हैं, वो ऐसी हमसफ़र चाहे जो उसको उम्र भर चाहे।" – सच्चे प्रेम की परिभाषा।
8. यथार्थ और आदर्श का टकराव
कवि ने यथार्थ और आदर्श के बीच बढ़ती खाई को बड़े सहज और मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है।
"रास आई ही नहीं उसको जमाने की हवा, राम के जाते ही फिर घर की अहिल्या सिल हुई।"
"जो प्रगति के साथ में इतना बड़े बढ़ते रहें, यह तरक्की ही पुरानी इल्म की कातिल हुई।"
9. विविधता और समग्रता
ग़ज़लों में विविध विषयों की समग्रता देखने को मिलती है।
राजनीतिक कटाक्ष
सामाजिक विसंगतियाँ
व्यक्तिगत भावनाएँ
प्रेम और संवेदनाएँ
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह संग्रह एक संपूर्ण साहित्यिक अनुभव प्रदान करता है।
10. निष्कर्ष और समग्र मूल्यांकन
"आखिर वही हुआ" ग़ज़ल संग्रह केवल काव्य-संग्रह नहीं, बल्कि एक जागरूकता अभियान भी है। यह समाज और व्यक्ति के संघर्ष को बारीकी से प्रस्तुत करता है।
मुख्य विशेषताएँ:
सामाजिक और राजनीतिक चेतना का सुंदर चित्रण।
व्यंग्य, हास्य और गहराई का अनूठा संतुलन।
सरल भाषा में गहरी बातें कहने की शैली।
पारंपरिक ग़ज़ल शिल्प का सही निर्वाह।
हर ग़ज़ल एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है।
रेटिंग: (5/5)
यह संग्रह हर साहित्य प्रेमी और जागरूक पाठक के लिए अनिवार्य रूप से पढ़ने योग्य है।
©®अमरेश सिंह भदौरिया
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY