जीवन की सांझ
अर्चनाजी इधर उधर मुझें ही ढूंढ रहीं थी। एक बार मन किया हाथ हिला कर बता
दूं कि मैं यहाँ पर बैठी हुं, बेचारी.., वो कौनसी जवान हैं मेरी उम्र की महिला ही
तो हैं। चल चल कर हलकान होंगी मुझे ही तो ढूंढने निकली हैं अपनी परेशानी के
बावजूद भी पूरा प्रयास तो करेगी ही, फिर चाहे घुटनों पर घंटों मालिश करती रहें
पर कुछ सोच कर में चुपचाप बैठी रही मेरा गुस्सा अभी मुझ पर हावी था। और
किसी तरह उन्होने अंत में मुझे ढूंढ ही लिया था। मैंने एक विरक्ति भरी नज़र से
उनको देखा और जैसे थी वेसे ही बैठी रही। अर्चना जी अपनी थकान व उतरती
चढ़ती सांसों को सयंत करने के प्रयास में लगी थी। फिर उन्हानें घीरे से मेरा हाथ
अपने हाथ में लिया और सहलाने लगी । कुछ समय बाद बोली थीं। जा रही हैं
आप ... मैं रोष में भरी बैठी थी बोली हाँ जा रही हुं....’’पर कहाँ’’ और उनकी बात
पुरी होने से पहले ही बोल पड़ी थी मैं ’’जहाँ मेरा मन करेगा’’ उनका स्नेह भरा
स्र्पश पाकर आँखों में उमड़ आये आँसूओं को रोकने का भरसक प्रयास भी असफल
हुआ और मेरी आँखें सारा भेद खोल गई और उसके साथ बहता चला गया मेरा
सारा गुस्सा, तब तक मेरा जबरन ओढ़ा मेरा सारा आत्मविश्वास ड़गमगा गया । कुछ देर दोनों
और से चुप्पी, अर्चना जी ने मेरा हाथ घीरे धीरे सहलाना जारी रखा और कहना
शुरू किया। रिक्क्षे से उतर कर यहाँ तक आनें में मेरा क्या हाल हुआ आप देख
रहीं हैं शौभाजी आपकी हालत भी मुझ से कुछ विशेष अच्छी नहीं हैं उस पर इतना
आवेश...जो स्वास्थ्य के लिये बिल्कुल उचित नहीं है। ‘क्या कहती हैं आप‘ अर्चना
जी ने मेरी और बडे प्यार से देखा। मैंने फिर भी उग्र अंदाज से ही कहा था ’’तेा
क्या करूं बार बार अपमानित होती रहुं।
अर्चना जी कुछ समय तक मेरा मुंह तकती रहीं। उन्होनें पूरे घैर्य का परिचय दिया
इंतजार करती रहीं कि मेरा मन शान्त हो तभी वह अपनी बात कहें। चाय वाले को
दो कप चाय लाने को कह कर अचर्ना जी फिर चुपचाप हो गई। मुझे चाय पकड़ा
कर वह मेरी बगल में ऐसे बैठ गई जैसे मुझे जानती ही नहीं है। पर चाय का कप
खतम होते होते मैं संयत हो चुकी थी। अर्चना जी ने बडे़ प्यार से पूछा ’’शोभाजी
अब कुछ अच्छा लग रहा है यहाँ से चलें या हम यहीं कुछ देर बैठे रहें।’’ ना जाने
क्यों मुझे भीड़ में इस तरह बैठे रहना अच्छा लग रहा थां। मेरी वृद्धा अवस्था,
असुरक्षा की भावना और अकेलापन उस पर नकारात्मक सोच, किसी भी समझदार
मनुष्य का मनोबल कमजोर करने के लिये काफी है मै भी तो इसी का शिकार
थी।
अर्चना जी ने कहना शुरू किया। शोभा जी मेरी नजर में आप विदुशी हैं आपकी
सोच और आपकी परिवार के प्रति निष्ठा की मैं सदा से कायल रही हुं। इस तरह
का जीवन बिताने के बाद अचानक आपका अकेलापन, समाज से अलग थलग हो
जाना और घर में भी आपकी पग पग पर कसौटी होना यह सब मैं भी देख सुन
रही हुं।
मैं तो सदा आपको भाग्यशाली मानती आई थी कि आप दो पुत्रों की माता है सारी
जिम्मेदारी पूरी हो चुकी थी। अब आप को अपने लिये ही जीना है पर अचानक
आपका अकेला होना आपको ही नहीं हम सब को झकझोर रहा थां। पर यह तो
संसार चक्र है समाज में चारों और हो रहा हैं। इससे प्रभावित सभी होते हैं आप
पर भी असर होना स्वभाविक है सराहना करती हुं आपने स्वयं को संभाला । इस
दौर से जब मैं गुजरी थी, तब मेरे बच्चे बहुत छोटे थे और मैं संयुक्त कुटुम्बं में थी।
मुझे भिन्न परीस्थितियों का सामना करना पड़ा। सच है जिन्हें हम अपना समझते है
जिनके संबल की आशा हमें होती है उन्हीं की नजरों में जब हम बेकार समझे जाने
लगे तब मन का आहत होना स्वभाविक है। मेरी भी संयुक्त कुटुम्ब में रहने की
आदत हो गई थी। मुझे भी संयुक्त कुटुम्ब छोड़कर इन परिस्थितियों में से पुत्री के
साथ रहने इसलिये आना पडा कि परिवार में जो मेरे हम उम्र थे वो स्वयं ही अपनी
अपनी संतानों पर निर्भर हो गये थे। नई पीठी के साथ तालमेल बिठाने में लगे थे
एैसे में मुझे भी अपना भविष्य देखना था। इकलोति पुत्री के अलावा मैं किससे आस
करतीं। आप सोच कर देखिये इस तरह यहाँ आना और जीवन भर इसी की आस
रखना कितना कष्ट कर है।
कभी कभी मान, अपमान तो हमें लगता है नई पीठी के लिये तो यह सच
को सच कहना है। आज की पीठी में संबधों को लेकर कोई दिखावा नहीं हैं। कभी
कभी मुझे भी लगता है कि यदि ये पीढी प्रैक्टीकल है तो क्यों न हम भी प्रैक्टीकल
हो जायें। हम भी किसी वृ़द्धाश्रम में अपना नाम दर्ज करवा के आजीवन वहाँ रहें।
में बीच में बोलना तो नहीं चाहती थी पर मैने तपाक से कहा ’’क्यों पराये लोगों के
बीच रहें। सारी जिन्दगी अपनों के साथ रहे हैं वहाँ तेा इनको देखने को भी तरस
जायेंगे ’’अर्चना जी ने कहा हाँ, ये सोचे हमारी है और इसी सोच के कारण ही तो
हम सकारात्मक सोच के साथ अपने बंच्चेंा से बंधे उनके पास रहकर अच्छा बुरा
सहते जाने के लिये कटि बद्ध हैं। अर्चना जी ने कहा बुरा कुछ नहीं है। जो बात
आज आपको मुंह खोल कर कही गई है वह मुझे कितनी ही बार आॅखें तरेर कर
समझाई गई हैं। मेरी सलाह है एक बार भूल जाईये की आप बेटे के घर में है मेै ं
भी भूल जाती हुं कि मैं बेटी पर आश्रित हुं। हम अपने घर में हैं अपनों के बीच हैं।
एक बात याद रखिये हमारे किसी भी गलत निर्णय पर सदा अंगूली हमारी संतान
पर ही उठेगी। क्या हम वह सह पायेंगे । हम इतने स्वार्थी कैसे हो सकते है। रही
बच्चेां की बात आप और मैं इसे इतना सोचते है बच्चे तो अपनी बात कह कर भूल
भी जाते हैं। एक कटु सत्य शोभाजी हमारे बडे बूढे़ कह गये है कि सास तो मिटटी
की भी हो तो बहु उससे दूर ही रहना चाहती हैं। हमे ं हमारी सोच बदलनी होगी।
हम अपने शरीर से जितना कर सकतें है करते रहे । स्वयं को शारीरिक व
मानसिक रूप से स्वस्थ रखने का प्रयास करें। हमारी सोच को हमारे तक ही रखें
और नई पीढ़ी के साथ तालमेल बैठा सकें तो ठीक अन्यथा, उन्हें अपने हाल पर
छोड़ कर खुश रहने का प्रयास करें।
आप जब घर से गुस्से में निकल आई तो मै विचार करने लगी, अरे मै तो अब
अकेली हो गई और अपने अकेलेपन की कल्पना से घबरा उठी। नहीं में आपको
नहीं जाने दूंगी। आप भी यहीं रहेंगी। इसी घर में बहु को बेटी मानने का प्रयास
करें में जवांई को बेटा मानने का प्रयास कर रही हुं । चलो आज से हम अपना
अपना स्थान बदल कर सोचें, दोनों रिश्तों के साथ नई पीढ़ी के व्यवहार के विषय
में ,आपको पता है जवांई के मुह से जो बात अच्छ ी नहीं लगती वह बेटे के मुंह से
अच्छी हो जाती है और बेटी के मुंह से जो बात ठीक लगती है पर बहु के मुंह से
कड़वी जहर लगती हैं।
इसलिये हमें आपस में एक दूसरे के संस्कारों पर अंगूली उठाने के बदले, एक साथ
एक दूसरे का सहारा बनना है हमें बच्चों का भी सहारा बने रहना है। आज हम
बच्चों की किसी जिम्मेदारी को उठा लेंगे तो कल बच्चे हमें संभाल ही लेगें
इसलिये भगवान के लिये गुस्सा त्याग दो और अपर्नी अचना सखी की बात मान
लो। शान्त मन और प्रफुल्लित ह्रदय से दोनों सखियाॅ हंँसति खिलखिलाती स्टेशन
के बाहर निकल कर रिक्क्ष्ेा में बैठ गईं। अपने सुन्दर नीड़ में लौटने के लिये। कहते
है नजरिया बदलों नजारे बदल जायेंगे। सोच बदलो परिस्थितियां बदल जायेंगी।
आज जीवन की संध्या में यही कहना चाहती हुं। समझोता, सर्मपण, मजबूरी जैसे
नकारात्मक शब्दों को परिवार से दूर रखें देखें जिन्दगी कितनी आसान हो जायेगीं।
प्रभा पारीक, भरूच
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