16- कान्हा हमारा
आज सुबह प्रफुल्लित मन से उठी,रात सोते समय ही सोच लिया था, कल काकाजी से जरूर बात करूंगी। सुबह सवेरे ही सोचा दिन भर काम में समय नहीं मिलेगा काकाजी को अभी फोन लगा लूं। सारे समाचार लेकर जब फोन रखने लगी। काकाजी ने समाचार दिया जिसमें मोहल्ले के पुराने लोगों में से माथुर साहब के देहान्त का भी समाचार था। वह शायद यह समाचार मुझे देना तो नहीं चाहते थे यह जानते थे कि मेरा उस परिवार के साथ एक अलग जुड़ाव था। वृद्ध जनों के जाने का दुखः तो होता है साथ ही सन्तोष होता है जब वर्तमान समय की पारिवारिक व्यवस्था में बडे़ बूढ़ों को हो रही पीड़ा को जानते समझते हुये भी हम उनके जाने का समाचार सुनकर सन्तुष्ट होने के अलावा कुछ नहीं कर पाते। सोचते हंै कि वह पीड़ा से मुक्ति पा गये। ईश्वर ही जाने क्या सही है....हम बच्चों ने बडे़ होते पढ़ाई नौकरी के चलते शहर छोड़ दिया, माँ बाबूजी के साथ निभाने को रह गया कान्हा.....इस प्रगति की देन है यह कि छोटे शहरों की संतान पढ़-लिख कर बाहर जा कर न केवल वहाँ बस जाते है। अपनी जड़ों से भी कोसों दूर हो जाते हैं। सफर की दूरियाँ तो पाटी जा सकती है पर मन की दूरियाँ.....किसी आवागमन के साधन की मोहताज न होनेपर भी कम ही नहीं होती। संतान का आग्रह माता-पिता को भी उनकी जड़ों से दूर करने का ही रहता है.....आखिर समय की मांग है और वह समय संतान के पास क्लब,सोसायटी आॅफिस, बच्चों सब के लिये है पर मां बाप के लिये....?
मैं आज सुबह ही जयपुर पहुँची थी अपने हाथ में चाय का कप थामें मैं चैक में काकाजी के समीप मौढे़ पर बैठते हुये बोली....इस बार तो घर चमक गया काकाजी....अरे! पेड़ों की छंटाई क्यों नहीं करवाई, लगे हाथ वो भी हो जाती तो उजाला हो जाता घर में, चैक तो खुला-खुला लगने लगा है अब....मैं भी चार वर्षों में घर में क्या क्या बदलाव आये हैं, देखने की ललक में अपना चाय का कप हाथ में थामें घर में घूमने लगी। ठन्डी हवा के साथ चिड़ियों के चहचहाने की आवाजों ने मुझे मेरे तीस वर्ष पुराने जीवन के बचपन सहित उन दिनों की याद दिला दी जब मैं काॅलेज के दिनों में अपना सभी काम चैक में खुली हवा में बैठ कर ही करना पसंद करती थी।
आजकल के जीवन में खुली हवा, चैक और फुर्सत के क्षण ये सब कहाँ मिल पाते हैं। काकाजी के चेहरे को ध्यान से देखने पर लगा इस बार उम्र अपना वर्चस्व काकाजी के शरीर और मन पर जता गई है....। साथ के सभी लोगों की रवानगी भी तो मनुष्य को आयु का अहसास कराने में अपनी अहम भूमिका निभाती है। सविता बाई वैसे ही अम्मा काकाजी की सेवा कर रही थी। इतना बड़ा घर रहने वाले सीमित लोग। मेरी नज़र फिर उस सफेदी से ताजा पुती दीवार पर अटक गई काकाजी पुताई को देखकर लगता है इस बार कानजी ने बहुत दिल से काम किया है, क्योंकि ताजा पुताई के बावजूद भी सारा घर व्यवस्थित जमा हुआ है। काकाजी ने मेरी और एक बार मुस्कुराकर देखा और हामी भरी...तब मुझे याद आया कानजी की काम के प्रति लगन,.....भोजन की लगी हुयी थाली को भी दो घंटे इन्तजार करना ही पड़ता, आधा लोटा पानी एक बार गटक कर कानजी काम में लगे रहते, उनके मुख से वो भजन ‘‘म्हारा राम रघूनाथ...इतनी शक्ति तन मैं दिजो, नित उठ जोडूं हाथ, म्हारा राम रघूनाथ’’ आज भी कानों में गूंजता है और आज सत्तर पार कर रहे कानजी को देख कर लगता था उनकी सुन ही ली थी रधुनाथ ने। ऊँची बंधी धोती पर कसा जाकेट पहनते और घनी भूरी मूंछें उनकी पहचान.....हम बच्चे थे तब कानजी की मूंछों को छूने की होड़ में अनेकों बार काकाजी से डांट खा चुके थे। काम करने दो उन्हंे, परेशान मत करो.....और कानजी कहते ल्यो बाईजी कांई कांेनी होवै.......और मैं हल्के से छूकर भाग आती।
दीवारों को निहारने के बाद पूछा कैसे हैं कानजी.....काकाजी ने मुझे गहरी नज़रों से देखा, जैसे मेरे प्रश्न की गम्भीरता की परख कर रहे हों.....और बोले उनकी..... पत्नी का देहांत हो गया था। मैंने पूछा कब कैसे.....ठन्डे भाव से काकाजी बोले तीन साल पहले.....मुझे तो जानकारी ही नहीं है अपनी बात को स्वयं ही काटती हुई बोली थी मैं.....आई ही कब इतने वर्षों में काकाजी ने बताया ‘कान्हा अकेला हो गया था‘ बेटा बडे़ शहर में बड़ी नौकरी करता है, वहाँ कानजी कैसे ‘रमे‘ माधोपुर के खेत खलिहान भी देखने थे.....मैं अब मन ही मन कानजी की पत्नी का शोक मना ही रही थी कि काकाजी ने बताया ’आज आने वाला है कानजी.....‘ ‘चलो ठीक है बहुत दिनों बाद ही सही मिल तो लूंगी‘।
शाम को कानजी आये थे वही सधी हुई चाल जो चेहरे की झुर्रियों को नकारती लग रही थी। साथ में थी एक अन्जान वृद्धा, आते ही उसने जिस तरह अम्मा काकाजी की पगा लागणीं करी, उससे लगा कानजी की नव ब्याहता है अचरज से निहार रही थी। कुछ शब्द नहीं निकल रहे थे। ‘काकाजी ने इशारा किया.....‘ मैंने अपने को संयत किया और कानजी के हाल-चाल पूछने लगी.....कानजी नई पत्नी जिसे कि आँखांे से बहुत कम दिखाई दे रहा था। पुराने समय के घाघरा-लूगड़ी, माथे पर बोरला, हाथों में लाख का चूड़ा और पैरों में जूतियां और सूखी जर्जर कलाईयों में बंधा था नया कंगना, जो उसके नव ब्याहता होने का संदेश दे रहा था। कमजोर हाथों में थैला थामें, कानजी के पीछे-पीछे चल रही थी। चैक पार कर अन्दर आते-आते एक दो बार वह डगमगाई भी थी जिस स्नेह से कानजी ने सकुचाते हुये उसको थामा था। किसी युवा में वो सात्विकता कहाँ?
अम्मा काकाजी उनके इस निर्णय से प्रसन्न थे। अम्मा तो उत्साह में आकर नवयुवती, नववधू को निहारते हैं उस तरह उसे निहार रही थी। कानजी काकाजी के पास बैठे थे। कानजी ने बताना आरम्भ किया, अपनी चिर-परिचित भाषा में बाबूजी रोटियों का टोटा होगा। खाने के लिये तरस गया था। बेटे का अपना परिवार है किसके दुत्तकारे खाने जाऊँ रोटियों के लिये, अपनी नव ब्याहता की ओर ईशारा करते हुये बताना आरम्भ किया ‘बाल विधवा है भाईयों से दुत्तकारे खा रही थी। आँखों से लाचार थी। रोज पिटते देखता था। एक दिन बिना किसी से बात करे हाथ पकड़ कर ले आया।‘ शहर लाकर समझाया ईलाज कराने का प्रयास कर रहा हूँ और वकील के पास ले जाकर कागज पत्तर बनवा लिये हैं। सोचता हूँ इसके और मेरा दोनांे के कुछ वर्ष एक साथ आराम से कट जायें। आगे रधुनाथ जी जैसा करेंगे। ‘‘समाज की ना जाणु बाबूजी पर इतना जाणु हूँ कि ओ आदेश भी रधुनाथजी को ही है।’’
अम्मा, काकाजी, कानजी के इस निर्णय पर निहाल हो रहे थे और कानजी उस महिला को अपनी भाषा में न जाने क्या-क्या बता रहे थे। संभवतः हमारे परिवार से कानजी के रिश्तों की मिठास से पगी चाशनी में सराबोर वृद्धा ने पुनः आकर काकाजी अम्मा के पाँव छू लिये। गवई मुद्रा में मेरी बलल्याँ लेती रही।
मेरे मित्र के पुत्र के विवाह के लिये दो महीने बाद आज फिर जयपुर गई। शाम की बस से कानजी अचानक आये थे। काकाजी ने पूछा ’’कैसे आये’’ आत्मविश्वास पूर्ण मुद्रा में कानजी ने कहा था।
इसकी आँखों का ईलाज करवा कर इसे लेकर वैष्णों देवी के दर्शनों के लिये जाने की सोच रहा हूँ..... अब इसे दिखने लगा है इसे घुमाने ले जा रहा हूँ। मन किया छियत्तर वर्षीय कानजीको एक सलामी दे ही दूं। पिताजी धीरे से बोले थे.....छोरा.....कहाँ है कानजी ने पूरे आत्म विश्वास से कहा ‘‘उसका अपना घर संसार है मेरे पास उसके लिये ढ़ेरों आशीर्वाद है।’’
मैं मन ही मन कान्हा के चरित्र चित्रण में फिर व्यस्त हो गई। कान्हाजी के बारे में जितना सोचा जाय वह सब कम लगता है। सदा चुप-चाप रहने वाला, अपने काम के लिये किसी भी काम की परवाह न करने वाला, छोटी उम्र में अनाथ। कतरा-कतरा प्यार को तरसता कान्हा अपने जीवन में इतनी विषमतायें दबाये बैठा है। कहाँ से शुरू किया जाय बारह वर्षीय गवई अनाथ छोरे को काकाजी ने ही किसी सज्जन के कह कर काम पर लगाया था। जब हमने कान्हाजी को देखा था। तब वह पन्द्रह-सोलह वर्ष का ही रहा होगा।अत्यन्त उत्साही, नये काम के लिये लालायित, भूरी चमकती आँखें, घनी पलकों के बीच सदा मुस्कराती हुयी आँखें.....देसी भाषा में बात करता.....बाबूजी का आज्ञाकारी.....किसी काम को कल पर नहीं छोड़ता.....काम के दम पर ही तो सब का चहेता था कानजी.....हमारे घर की पहली मंजिल के निर्माण के दिनों में वह महीनों हमारे इसी चैक में रहता। सर्दी की रातों में वह सीढ़ी के नीचे की बुखारी में दुबक कर सो जाता। फिर वर्षांे हो गये, पर आज तक हर दीपावली से पहले अपनी सुविधा से आकर महीने भर में हमारा घर चमका कर चला जाता। बड़ा हुआ हमने अनेकों बार कान्हा से यह जानना चाहा था कि कितने बच्चों का पिता है.....तो हँस कर यही कहता ’’छोरा छोरी नान्हा छै’’ अपने बच्चों के लिये वह ’थिपणी’ और ’थिपणां’ शब्द बोलता आज याद आ रही है कानजी की थिपणी.....पिता के लिये पुत्री की अहमियत क्या है इसका अंदाज लगाने जितनी परिपक्वता भी तो अब ही आई है, जब बडे़ होंगे तो मिलाऊँगा.....बच्चों की बात आते ही चहक उठता कान्हा उनके लिये। दी गयी भेंट सौगाधों के लिये कभी हाँ नहीं बोलता.....हम भी कहाँ जानते थे कि कान्हा के कितनी संतानें हैं और किस उम्र की। पर हमारी नज़र में तो कान्हा स्वयं ही देव शिशु सा था, प्यारा सा, अनोखा सा।
आज करीब पचहŸार वर्ष की आयु में नई नवेली दुल्हन को साथ लिये कान्हा हमारे घर में खड़ा था। अचानक लगा जिस कान्हा से इतने जुड़े थे, कि घर का कोई भी काम उनके बिना सम्भव ही नहीं है। उसी कान्हा से कितन अन्जान थे.....। कान्हाजी का इस तरह हम उम्र विधवा को आश्रय देना, न केवल सराहनीय था वरन् एक नैतिकता भरा कृत्य था। पूरे जीवन भर मेहनतकश जीवन जीने वाले कान्हाजी के दिल में इतनी संवेदनाएं अभी बाकी है, यह जानकर मैं कानजी को अपने प्यार के साथ श्रृद्धा से भी देखने लगी। कान्हा अर्थात कृष्ण के नाम में ही क्या इतना बल है कि साधारण मनुष्य भी महामानव की तरह लोकहितकारी काम कर जाता है।
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