सच्चे गुरू सच्चा ज्ञान
सच्चे गुरू सच्चा ज्ञान देते हैं वे जगत गुरू नहीं होते वे केवल भक्तों का परम कल्याण करने वाले निराभिमानी कल्याण दाता गुरू ही होते हैं
मुझे जो ज्ञान है मेरा जो ज्ञान है ऐसा किसी के पास भी नहीं एैसा भाव रखने वाले अभिमानी व्यक्ति किसी के गुरू कैसे हो सकते हैं असली गुरू के लक्षण है कि वह शास्त्र की बात भी विनम्रता से ही करते हैं और किसी को नीचा दिखाने का भाव उनके मन में आता भी नहीं है
नकली गुरू दंभ अभिमान लालच के दलदल में फंसे रहते हैं अधिक शास्त्र का अघ्यन्न करने वाले ही गुरू नहीं होते। मात्र शास्त्र की बात करना और बिना सोचे समझे करना यह मात्र दंभी गुरू के लक्षण है जो ह्रदय की बात करे समझे वह सच्चा गुरू हुआ| संत कबीर, तुकाराम ,गुरूनानक देव ने केवल शास्त्र को सहारा नहीं लिया इन महापुरूषों ने पोथी पुराणों की बाते बता कर लोगो को गुमराह करने का काम नहीं किया उनका ज्ञान पोथी पुराणों से परे था संत तुकाराम ने भगवान का ठिकाना बताते हुये कहा काया ही पंढरी आत्मा पांडुरंग’’ अर्थात यह देह पंढरी है और उसमें आत्मा रूप से भगवान् पांडुरंग याने परमात्मा विराजमान है संत कबीर जी भी यह ही बात कहते है कि परमात्मा कहीं आकाश पाताल सप्त लोक किसी विशिष्ट जगह विराजमान नहीं है वे सर्वव्यापक है हमारे भीतर ही है वही अज्ञानी गुरू कहते हैं परमात्मा कहीं से चल कर आये हैं पुराणों की अधुरी बातें बताकर चतुराई से भ्रम पैदा करते हैं इसके स्थान पर जैसे कबीर ने कहा है कि ’’किसी विशेष लोक में परमात्मा का ठीकाना नहीं है’’ संत कबीर ने कहा
’’ कीड़ी में तूॅ नान्यो लाग्यो,हाथी में तूॅ मोटो क्यों
बण महावत ने माथो बेटो,हाकणवालो तूं को तूं।
ऐसो खेल रच्यो मेरे दाता ,जॅहाॅ देखूं वहाॅ तूॅ को तूॅ
यह परमात्मा की सर्वव्यापकता का बखान है जो संत कबीर ने किया है और यही तो होता है सच्चे गुरू का सच्चा ज्ञानकितनी सार्थक है गुरू शिष्य परंम्परा
आज के परिवेश में गुरू शिष्य एक सनातन सत्य है जो परंम्पराओं संे भी परे हैं।जब तक सीखना आवश्यक हैं तब तक सिखाने वाला भी आवश्यक हेै परिवर्तन भी एक ऐसी प्रक्रिया है जो निरंतर चलती ही रहेगी जो कल था वो आज नहीें जा,े कल है वो आज नहीं हमारी पारिवारिक सामाजिक जीवन शैली में खान- पान याता-यात संचार- मनोरंजन क्रिडा पूजा-अर्चना युद्ध आदि में व उनके तरीको में बदलाव आया है तब फिर गुरू शिष्य के संबंधों को इससे अछूता कैसे रखा जा सकत हैं। माता पिता का चरण वंदन कर सुबह दिनचर्या आरंभ करने वाले पुत्र अब पिता से प्रतिदिन मिल भी नहीं पाते ता,े क्या इसे हम रिश्तों का अंत मान सकते है नहीं... इस सत्य को स्पष्ट उजागर करती है कि चोला बदल सकता हैे आत्मा अजर है उसकी नियती अमर है
मोर पंख से .......बाल पेन तक
भोजपत्र से.....कागज तक
हस्त लिखित से........जैट प्रिन्टर तक
सभी कुछ बदला पर लिखने की आत्मा नहीं बदली
गुरू कौन.......?
जो राह दिखाता है जो राह पर चलना सिखाता है
जो आपदाओं से निपटना सिखाता है
जो सर्वागिंण विकास की राह बताये
जो सखा भी है संरक्षक भी है
जो उर्जा संचारक है
ओर शिष्य वो जिसे उपरोक्त सभी पहलूओं की आवश्यक्ता है शिष्यों का जब गुरू आश्रम में स्थाई रह कर गुरू सेवा करते हुये बालक का किशोर के रूप में विकसित हो और पूण विकसित युवक बन कर लौटना .....पुराने समय की बात है यह परिवर्तन का युग हैं आज एक विद्या-प्रार्थी को कम्प्युटर गुरू तक उपलब्ध हैं इस प्रणाली में भी अनेक परिवर्तनों का दौर आया हैं प्रणाम से शेक हैन्ड तक सभ्यता का प्रार्दुभाव भी सामने आया है पर इस प्रतियोगी युग में .............भी मैक्रो......... से माईक्रो ज्ञान आवश्यकताओं ने गुरूओं की महत्वता में बढोतरी ही कि हैं
विद्यालयों में कुछ गुंडागिर्दी आदि की सुर्खियों को कुछ चिंतक इस परंम्परा का ह्रास समझते है और प्राचीन परिपाटियों से तुलना करते है।
हमें यह याद रखना होगा! हम अतीत में सुखद पहलूओं को ही प्रायः याद करते हैं कहते हैं.... अंत भला तो सब भला........
साक्षरता का प्रतिशत इतना बढा हैं कि इन घटनाओं के प्रतिशत का अघ्यन करेगे तो इसे नगण्य पायेगे । इसमें हम अभिभावको का दोष अधिक है
हमारे गुरू आज भी वंदनिय हैं आज भी हमारे शिष्य गुरूओं कें के सामने नत मस्तक हैं
हमारी शिक्षा प्रणाली !व शिक्षको ने आज विश्व में श्रेष्ठ ब्रेन पावर का लोहा मनवा लिया है
शिक्षा का व्यवसाइ करण, वास्तव में चिन्ता का विषय है पर आशिंक रूप से यह सर्व काल से रहा है अंतर केवल इतना आया है कि पहले गुरू दक्षिणा शिक्षा उपरांन्त ली जाती थी अब पहले ही ले ली जाती है।
अति हर चीज की बुरी हे अति व्यवसाई करण पर अंकुश लगाना ही चाहिये।
निम्न आय वर्ग के शिष्य शिक्षा से वंचित न रह जाये,तौर तरीके बदले,साधन बदले गुरू शिष्य रिश्ते कहाॅ तक बदल,यह परंम्परा जीवित थी जीवित है शाश्वत सत्य है यह पंम्पराओं से परे है ।
सच्चे गुरू सच्चा ज्ञान,सच्चे गुरू सच्चा ज्ञान देते हैं वे जगत गुरू नहीं होते वे केवल भक्तों का परम कल्याण करने वाले निराभिमानी कल्याण दाता गुरू ही होते हैं।मुझे जो ज्ञान है मेरा जो ज्ञान है ऐसा किसी के पास भी नहीं एैसा भाव रखने वाले अभिमानी व्यक्ति किसी के गुरू कैसे हो सकते हैं असली गुरू के लक्षण है कि वह शास्त्र की बात भी विनम्रता से ही करते हैं और किसी को नीचा दिखाने का भाव उनके मन में आता भी नहीं है
नकली गुरू दंभ अभिमान लालच के दलदल में फंसे रहते हैं अधिक शास्त्र का अघ्यन्न करने वाले ही गुरू नहीं होते। मात्र शास्त्र की बात करना और बिना सोचे समझे करना यह मात्र दंभी गुरू के लक्षण है जो ह्रदय की बात करे समझे वह सच्चा गुरू हुआ संत कबीर, तुकाराम ,गुरूनानक देव ने केवल शास्त्र को सहारा नहीं लिया इन महापुरूषों ने पोथी पुराणों की बाते बता कर लोगो को गुमराह करने का काम नहीं किया उनका ज्ञान पोथी पुराणों से परे था संत तुकाराम ने भगवान का ठिकाना बताते हुये कहा काया ही पंढरी आत्मा पांडुरंग’’ अर्थात यह देह पंढरी है और उसमें आत्मा रूप से भगवान् पांडुरंग याने परमात्मा विराजमान है संत कबीर जी भी यह ही बात कहते है कि परमात्मा कहीं आकाश पाताल सप्त लोक किसी विशिष्ट जगह विराजमान नहीं है वे सर्वव्यापक है हमारे भीतर ही है वही अज्ञानी गुरू कहते हैं परमात्मा कहीं से चल कर आये हैं पुराणों की अधुरी बातें बताकर चतुराई से भ्रम पैदा करते हैं इसके स्थान पर जैसे कबीर ने कहा है कि ’’किसी विशेष लोक में परमात्मा का ठीकाना नहीं है’’ संत कबीर ने कहा
’’ कीड़ी में तूॅ नान्यो लाग्यो,हाथी में तूॅ मोटो क्यों
बण महावत ने माथो बेटो,हाकणवालो तूं को तूं।
ऐसो खेल रच्यो मेरे दाता ,जॅहाॅ देखूं वहाॅ तूॅ को तूॅ
यह परमात्मा की सर्वव्यापकता का बखान है जो संत कबीर ने किया है और यही तो होता है सच्चे गुरू का सच्चा ज्ञान
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