खुली खिड़कियाँ
माना गया है कि हमारी स्थापत्य कला के प्रणेता विश्वकर्मा हैं। पौराणिक काल के जितने भी आलीशान भवनों का जिक्र आता है वह सभी विश्वकर्मा की देन हैं। आभारी हैं हम विश्वकर्माजी के जिन्होंने किसी भी भवन के बड़े बड़े कक्षों ,बरामदों के साथ छोटी छोटी खिडकियों का प्रावधान भी रखा। हर कक्ष में चाहे जितने दरवाजें हो खिडकियाँ भी अवश्य ही होती हैं। जो उस समय क्या सोच कर बनाई जाती थी यह कहना मेरे लियें मुश्किल है पर ये निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि वह हवा के आवागमन के लिये, प्रकाश के लियें और सकारात्मक उर्जा के प्रवाह को निरंतरता देने के लिये किया जाता रहा होगा और जिनके लिये उनका खुला होना अत्यन्त जरूरी माना जाता है ।वैसे तो खिडकी और हवा का चोली दामन का साथ है। पर आजकल ये रिश्ता कुछ कमजोर हो गया है। बंद खिडकियाँ चारों और नजर आती हैं वैसे खिडकियाँ किसी भी आकार की क्यों न हों उनका सौन्दर्य खुलने पर दुगना हो जाता है। बन्द खिडकियाँ रहस्यमय नज़र आती है साधारण जिज्ञासा होती है इसके पीछे क्या है।
आज के बदलते वातावरण में हवा के आवागमन के लिये जो खिडकियाँ बनाई जाती रहीं है,वह आजकल खुलती नहीं है क्यों कि कमरों में ऐ सी लगे हैं इन खिडकियों को खोलने के बदले ऐ सी की ठन्डक को बनाये रखने के लिये मोटे परदे लगाने भी जरूरी हो जाते है। तो फिर आजकल खिडकिंया बनाते ही क्यों हैं। शायद इसलिये की कभी विद्युत विभाग रूठ जाये तब.....खैर ।
अजी इन खिडकियों का प्रयोग घर वाले अन्य कई तरह से व बहुत ही अच्छी तरह से करते हैं। सदियांँ गवाह हैं कि खिडकियाँ हमारे प्यारे पडौसियों से सम्पर्क का माध्यम भी रहीं है। जिनसे पडौसी धर्म वर्षो निभाया जाता रहा है। खिडकिया घर्म का विस्तार भी करती रहीं है आपके किसी भी धार्मिक अनुष्ठान की भनक पडौसी व महौल्ले वालों को खिडकियों की मैहरबानी से होता आया है। कभी कचरा फेंकने, पत्थर फेंकने, चिठठीयों के आदान प्रदान करने व कबूतर, तोते, बाज उडाने के लिये भी तो खिडकियाँ ही काम आती देखी गई है। अपने प्र्र्र्र्र्र्र्रेम की अभिव्यक्ति के लिये दिन का अधिकांश समय खिडकी पर बिताते नव युवक युवतियों को ंहमने भी देखा है। उनके लिये खिडकी शायद बनाई ही इसी प्रयोजन के लिये थी कि चिडिया उडाई जा सके और तोता बुलाया जा सके।
मीरा बाई का कृष्ण प्रेम भी तो किसी दुल्हे को खिडकी में से देख लने के बाद ही पल्ल्वित होना आरम्भ हुआ था। कितने ही ऐतिहासिक युद्ध सौन्दर्य को खिडकी पर निहार लेने के बाद आसक्ति के कारण ही परवान चढे हंै।
आजकल खिडकिया कुछ अजीबो गरीब तरह से उपयोग होने लगी हैं शुक्र है करोना काल में बाहर निकलना मना था पर खिडकी पर बैठे रहने में कोई रोकटोक नहीं थी। इसलिये करोना काल में विद्युत विभाग की मैहरबानी रहने पर भी बडा सहयोग रहा। आजकल भवन निमार्ता अपनी इमारत का सौन्दर्य बढाने खर्चा बचाने हेतु हर कमरे में बडी बडी दिवार नुमा खिडकियों का निमार्ण करते नज़र आ रहे हैं। जिसमें न चाहते हुये भी आपका समपर्क बाहरवालों से और बाहर वालों का आपसे हो ही जाता है। मोटे भारी पर्दो का खर्चा अलग करना आवश्यक है। माना तो यह जाता हैे कि जिन खिडकियों में सलाखें व जाली नहीं होती वह खतरनाक होती हैं पर असल में वहीं तो अधिक उपयोगी होती हैं जिसमें से आसानी से बाहर आया जाया जा सके, सामान का आदान प्रदान किया जा सके । यदि प्रेम करते पकड़े गये तो माता पिता द्वारा कमरे में बंद कर दिया जाता था तब खिड़कियाँ बडा मनोबल बढाती थीं। अब तो कमरे में बंद करने के स्थान पर फोन कब्जे कर लेना और स्कूटी की चाबी ले लेने से ही माता पिता को संतोष हो जाता है। पर होता वही है जो मंजूरे पे्रमी होता है बस कम से कम माता पिता का भ्रम तो बना रहता है।
बदले परिवेश में अब खिडकियां अपने जवान बेटे बेटियों पर नजर रखने के लिये उपयोग होती है जिसमें हल्का सा पर्दा हटाकर सारा माजरा समझा जा सकता है। किसी कौम विशेष पर पत्थर बरसाने हों, बम फेंकना हो अथवा पर्चे फेलाने हो तो खिडकियाँ बड़ी काम आती हैं। जितनी जल्दी बंद होने वाले खिडकी होगी उतनी ही उपयोगी मानी जायेगी। खिडकी के पीछे से सुनी हुई बातों ने बडे कांड किये हैं साहेब । आजकल तो दिवारों के ही नहीं खिडकियों के भी कान होते देखे गये है। आत्महत्या के लिये खुली खिडकी का विकल्प भी अनेको बार चुना देखा गया हैं। स्वादिष्ट पकवानों का आदान प्रदान हो अथवा मैहमान आने पर चाय दूध का आदान प्रदान ऐसे कठिन समय खिडकी की अहमियत घर के दरवाजे से भी ज्यादा हो जाती है। लाईट जाने पर आपने यदि भूल से खिड़की खोल ली और उसमें से ताजी ठन्डी हवा आने लगे तो उस सुख के पीछे स्र्वग का सुख भी कमजारे प्रतीत होता है। गर्मी में खस खस के पर्दो से ढकी खिडकियाँ हल्का प्रकाश ठन्डी हवा जैसे पहाडों में रहने का आन्नद देती हैं। कुछ घरों में बच्चों के बीच पहले के समय में खिडकियों का बटवारा भी देखा गया है। जहाँ बैठकर वो खेलते पढते थे। आज तो बटवारे खिडकियों के नहीं माता पिता के किये जाते हैं। आजकल खिडकी में बसे चाँद के टुकडे ने अपनी जगह मोबाईल पर बना ली हैं। करवा चैथ का चाँद भी अब खिडकी से नहीं मोबाईल से ही नजर आ जाता है। बच्चों के चन्दा मामा अब डोरीमोन हो गये। और चांद के बहाने देखने वाले पे्रमी अब मौन हो गये। पर खिडकियों का अस्तित्व उसी आन बान शान से बना हुआ है। आखिर किसी भी भवन का सौन्दर्य और शान है खिडकिंयाँ।
प्रेषक प्रभा पारीक
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