यह वह ज़माना था जब टेलीफ़ोन अमीर घरों की शान-ओ-शौक़त दर्शाने का एक ज़रिया भर थे और डाकिया गलियों के हर छोटे-बड़े घर से चिर-परिचित होता था| काशीपुर गाँव की हाट-बाज़ार सुन्दर-सुन्दर नक्काशी वाले लकड़ी के सामान, रंग-बिरंगे परिधान, धातु और लाख से बनी चूड़ियों और लोगों से हमेशा की तरह पटा पड़ा था| चार साल की कस्तूरी भी इसी भीड़ का हिस्सा थी| गुलाबी रंग का लहंगा-चोली पहने वह ख़ुशी से उछलती हुई बन्दर के हर करतब पर ताली बजा रही थी| इस तमाशे से जब मन भर गया तो पाया कि उसके माँ-बाबा साथ नहीं हैं| उसकी छोटी-छोटी आँखों में आँसुओं का सैलाब उमड़ आया था जो एक आदमी से टकराने पर फूट पड़ा| नन्ही कस्तूरी को उठाते हुए उसने पूछा-“बिटिया! क्यों रो रही हो? क्या अपने माँ-बाबा से बिछुड़ गयी हो?”
हल्की चुप्पी के बाद वह बोली–“मेरे माँ-बाबा खो गये हैं| मैं उनको दूंढ रही हूँ|”
अजनबी उसका परिचय जानने के लिए कईं सवाल करता है लेकिन उसकी मासूमियत भरी बातों को सुनकर बस मुस्कुरा देता है| हारकर वह कस्तूरी को चायवाले की ठेली से टेक लगाकर खड़े, चाय की चुस्कियाँ भरते दरोगा के पास ले जाता है| दरोगा के लिए वह चेहरा अनजान न था|
“आओ, रहमत खान! कहो आज किसे ले आये?”
रहमत कस्तूरी को आगे कर देता है| दरोगा जी बड़े गौर से कस्तूरी को ऊपर से नीचे तक देखते हैं| फिर चाय का एक लम्बा-सा घूँट भरकर (चायवाले को सम्बोधित करते हुए) फ़रमाते हैं- “भई! बड़ा ही नेक दिल इन्सान है यह रहमत| आज जब खून-खून का नहीं होता, यह पराया होकर भी औरों के बच्चों का ख्याल रखता है| जहाँ तक बात है लड़की की, इसे अभी अपने साथ ही ले जाओ| अगर कोई पूछता हुआ आया, तब ख़बर भिजवा देंगे| वैसे ज्यादा उम्मीद न रखना लड़की जात है...कोई छोड़ गया होगा|”
“दरोगा जी! हम सब के खून का रंग तो लाल ही है| बाकी सब नज़र-नज़र का फेर है|”-यह कहते हुए रहमत कस्तूरी को साथ लेकर बरगद के पेड़ के नीचे जा बैठता है| हर आते-जाते व्यक्ति में कस्तूरी की उदास आँखें अपने माँ-बाबा को ढूँढ रही थी| प्रतीक्षा की इस अवधि में जगमगाती लालटेन और दीये भी थक चुके थे लेकिन वह आस का दामन अभी भी थामे हुई थी| थकान से चूर उसका बोझिल शरीर और आँखें देख रहमत ने उससे अपने घर चलने के लिए कहा|
“काका! हम कल यहाँ फिर आयेंगे न? मुझे माँ-बाबा ले जायेंगे न?”- वह पूछती रही और रहमत की अंगुली पकड़े उसके साथ-साथ एक नए गंतव्य की ओर बढ़ती रही| रहमत के पास उस मासूम के सवालों का कोई जवाब न था| थी तो केवल दुआ “नन्ही कस्तूरी का इन्तज़ार जल्द ही ख़त्म हो|”
रहमत के घर का नज़ारा भी बड़ा दिलचस्प था| मिट्टी से लिपे आँगन के एक छोर पर पनपते नीम के पेड़ से बंधी बकरी पास ही पड़ी खाट पर चढ़कर मिमिया रही थी| नीम के ठीक सामने, अमरूद के पेड़ के नीचे उस पर लगे इकलौते फल के लिए दो बच्चों में खींचतान चल रही थी| एक अपने घर से चीटियों के घर तक अनाज के दाने पँहुचाने में मशरूफ़ थीं| तो यही थी रहमत की ख़ूबसूरत दुनिया| जहाँ वह न जाने उन कितने ही बच्चों को पनहा देता था जो जाने-अनजाने किशनपुर के हाट बाज़ार में गुम हो जाते थे या जिन्हें उनके जन्मदाता बेसहारा किसी मंदिर, मस्जिद या गली में छोड़ जाते थे| जो खुशनसीब होते थे वह अपने परिवारों तक पहुँच जाते थे या कोई संपन्न कुटुम्ब उन्हें ले जाता था, लेकिन कुछ ऐसे भी थे जिन्हें लेने कोई नहीं आता था| वह हर तरह से रहमत पर निर्भर थे|
रहमत को अपने जैसे ही एक नये मेहमान के साथ आते देख सभी बच्चे ‘अतिथि’ स्वागत में उसे घेरकर खड़े हो गये और रहमत रोज़ की तरह खाना पकाने के लिए चूल्हे में लगी धुआं छोड़ती लकड़ियों के साथ जद्दोजहत में जुट गया| सबका पेट भरने के बाद उस एकमात्र कमरे में वह उन सब बच्चों को सुला देता है जिसकी घास-फूस की छत से चाँद झांका करता था|
नयी सुबह का सूर्य अपनी हर सुनहरी रश्मि के साथ कस्तूरी के लिए ढेरों आशायें लेकर आया| मगर ढलते हुए दिन के साथ बढ़ते स्याह रंग ने उसकी हर उम्मीद को चूर-चूर कर दिया| कस्तूरी का हौसला टूटते देख रहमत ने उसे ढांढस बंधाते हुए कहा-“कोई बात नहीं बिटिया! हम कल फिर आयेंगे| शायद आज वह तुम्हे किसी और जगह ढूँढ रहे होंगे|” वह ख़ामोश रही लेकिन यह समझ चुकी थी कि अब उसे लेने...कोई नही आयेगा| उस दिन के बाद से कस्तूरी ने कभी काशीपुर के हाट की ओर मुड़कर भी नहीं देखा|
दिन...महीने...साल...और फिर कईं साल गुज़र गये....
नन्ही कस्तूरी किशोरावस्था में प्रवेश कर चुकी थी| रहमत का एक कमरे का मकान ही उसका घर था जहाँ वह अन्य यतीम बेसहारा बच्चों के साथ रहती थी| इस अवधि में कईं बच्चे रहमत के आँगन में आये-गये लेकिन उनमें कोई उसका कस्तूरी जितना लाडला न हुआ|
एक दिन कस्तूरी आँगन में बैठी बच्चों के साथ खेल रही थी कि यकायक एक औरत(कस्तूरी की माँ) दौड़कर आयी और कस्तूरी को गले लगाने का प्रयास करने लगी| वह कभी उसके गाल छूती और कभी उसके बालों में हाथ फेरती| खुद को छुड़ाकर कस्तूरी अपने रहमत काका के पीछे जाकर छिप गयी और दरोगा जी एक व्यक्ति (कस्तूरी के पिता) को साथ लिए वहाँ तशरीफ़ ले आये और बोले-“कस्तूरी बिटिया! छुपो नहीं| यह तुम्हारे माता-पिता हैं| तुम्हे साथ ले जाने आये हैं|”
कुछ क्षणों के लिए सभी स्तब्ध रह गये| भावनाओं के ज्व़ार को सँभालते हुए रहमत ने पूछा- “लेकिन इतने समय से यह कहाँ थे?” जिस पर दरोगा ने बतलाया कि वह सारी जाँच-पड़ताल करके ही उन्हें यहाँ लाया है| किन्तु उसे संतुष्ट न देखकर कस्तूरी के पिता ने अतीत की परतों को खोला- “हम पीढ़ियों से चरणपुर गाँव के साहुकार हैं और जरूरतमन्द लोगों को बिना ब्याज उधार देते हैं| एक वर्ष एक महात्मन् हमारे गाँव आये और हमारे परिवार पर मृत्यु संकट बतलाकर कस्तूरी की बलि देने को कहा| यही नहीं उन्होंने अपने कुछ चेलों को भेजकर भी कस्तूरी को ले जाने का प्रयास किया| बस उन्ही सब से बचाने के लिए उन्होंने उसे काशीपुर के बाज़ार में अकेला छोड़ दिया और इतने वर्ष से छिपते-छिपाते उसे बड़ा होते देखते रहे|”
यह वृतांत सुन रहमत कस्तूरी को उन्हें सौंप देता है| कस्तूरी के माता-पिता रहमत को इतने वर्षों की तरबियत के बदले कुछ रक़म देते हैं जिसे वह यह कहकर ठुकरा देता है कि जिसके लालन-पालन के लिए वह यह सब जतन करता था जब वह ही उसके पास न होगी, तब यह धन उसके किस काम का?
आज कस्तूरी उस घर में खड़ी थी जिसकी धुँधली यादें अभी तक उसके जेहन में कायम थीं| उसके लकड़ी के खिलौने, कपड़े के गुड्डा-गुड़िया सालों से अनछुए रखे थे| वह झरोखा जिस पर बैठकर वह बगीचे में उड़ती रंग-बिरंगी तितलियों को देखा करती थी, उसके बिना सूना पड़ा था| उसके माँ-बाबा ने एक अध्यापक बुलवाकर उसे लिखने-पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया| वह रोज़ाना एक चिट्ठी अपने रहमत काका को लिखती तो थी परन्तु भेजती नहीं थी|
कुछ समय बाद कस्तूरी के माँ-बाबा ने उसका विवाह काशीपुर के जाने-सुने सभ्य परिवार में कर दिया| शीघ्र ही उसके सामने वह सत्य आया जिसकी आँच से उसका बचपन तो बच गया लेकिन आज वही महात्मन् उसके ससुर का रूप लिए यमराज बन उसके समक्ष खड़ा था| वह महात्मा बनने का ढ़ोंग मात्र अपनी बहन की मौत का बदला लेने की भावना से कर रहा था| जिसने केवल इसलिए ख़ुदकुशी कर ली थी कि साहुकार ने और पैसे उधार देने से मना कर दिया था और नतीज़तन दहेज़-लोभी ससुराल पक्ष के प्राणियों ने यह मोलभाव वहीं खत्म कर दिया| इस कुप्रथा की विभीषिका यह थी कि दो परिवारों की पीढियां सजा भुगत रही थीं| जैसे-तैसे गिरते-पड़ते कस्तूरी अपने रहमत काका के आँगन में आ पहुँची और उसकी गोद में गिर पड़ी| अपने जिगर के टुकड़े को लहुलुहान देख रहमत के होश फ़ाख्ता हो गये| उसने अनेक प्रयास किये किन्तु अपने आँगन के इस फूल को मुरझाने से नहीं रोक पाया|
उसने कस्तूरी की लाश को उसके माँ-बाबा के घर की चौखट पर रखा और सारा वाकया कह सुनाया| यह देख उनके ऊपर दु:खों का पहाड़ टूट पड़ा| खैर पुलिस को ख़बर कर दी गयी और बयान के आधार पर गिरफ़्तारी भी हो गयी और शायद सजा भी| इसी के साथ गुनाहों की फ़ेहरिस्त में शुमार होने के लिए, बदले की भावना ने एक नए गुनहगार को जलाना शुरू कर दिया होगा??? कितना बेहतर होता कि इस तसव्वुर को पहले ही थामकर, सीख की सुई में पिरो दिया गया होता ताकि यह पीढ़ियों को न लील पाता|
आज कस्तूरी को गुज़रे पूरे १३ दिन बीत चुके थे और उसकी आत्मा की शांति की लिए हवन आदि भी हुआ| समस्त क्रियाऐं पूर्ण होते ही रहमत के लौटने का समय भी हो चला था| जाते समय कस्तूरी की माँ रहमत को एक थैला देती हैं जिसमें ढेर सारे कागज़ों पर काली स्याही से कुछ लिखा हुआ था| रहमत अक्षर नहीं पहचानता था इसलिए पढ़ने में असमर्थता प्रकट करते हुए वह कस्तूरी के पिता से उन पत्रों को पढ़ने का आग्रह करता है| कस्तूरी के पिता पत्र का कुछ हिस्सा ही पढ़ पाते हैं कि भावनात्मक उद्वेग से उनका गला रुंध जाता है और वह अपने आँसूओं को छिपाते हुए वहाँ से चले जाते हैं|
रहमत उन कागज़ के टुकड़ों को ऐसे एकत्रित करता है जैसे हर याद को पुन: स्मरण कर संजों रहा हो| सब समेटकर वह उन चिट्ठियों को हृदय से लगाये चुपचाप चल पड़ता है और उसके कानों में पत्र में लिखे अल्फ़ाज़, कस्तूरी की मीठी आवाज़ में कुछ यूं गूँजने लगते हैं-
“प्यारे रहमत काका,
जानती हूँ यह अक्षर आपके लिए केवल कागज़ पर बिखरे हुए रंग हैं| आप फ़िक्र मत करना, जब आपसे मिलने आऊँगी तब पढ़ना-लिखना सिखा दूँगी| माँ मेरे लिए तरह-तरह के पकवान बनाती हैं पर जाने क्यों उनमें वह स्वाद नहीं मिलता जो आपके हाथ की बनी सूखी रोटी में था| चिड़िया तो यहाँ भी आती हैं पर न जाने क्यों उनकी चहचहाट कानों को उतनी नहीं भाती जितना आपके आँगन में सुहाती थी| यहाँ गौशाला में दो-दो गायें हैं और उनकी बछिया भी हैं पर न जाने क्यों उनकी उछल-कूद में वह अपनापन नहीं जो हमारी बकरी के मेमनों में था|
आप वह लकड़ी का बक्सा खोजना छोड़ दो जिसमें मेरी गुड़िया रहती थी| मैं उसे अपने साथ ले आयी हूँ क्योंकि मैं जानती हूँ कि जब-जब आप उसे देखोगे, तब-तब मुझे याद कर आँसू बहाओगे और मैं यह बिल्कुल नहीं चाहती कि मेरे काका की आँखों में कभी यादों की नमी भी आये| याद है जब आप मुझे नीम के पेड़ पर टंगा झूला झुलाते थे, तब मैं आपका हाथ पकड़े रहती थी और कहा करती थी-‘काका! मेरा हाथ मत छोड़ना|’ फिर अब आपने ऐसा क्यों किया? मेरा हाथ क्यों छोड़ दिया”
Richa Indu
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