बोझ धरा का, आकर आज हटा जाओ।
हे सत्कर्मों, अब कलयुग में आ जाओ।।
घिरा अँधेरा, चारो ओर है पापों का।
भय न होता, है अब तो अभिशापों का।।
भ्रष्टाचार की, नीव पे खड़ा प्रशासन है।
दुष्कर्मों का, आज धरा पर शासन है।।
मेरी कविता, में जिसका उदबोधन है।
कलयुग की, महाभारत का दुर्योधन है।।
महाबली अब, लोभापाश में कसता है।
आतातायी कंस, सत्य पर हँसता है।।
न्याय, धर्म का, अब कोई अवशेष नहीं।
मानवता अब, किसी हृदय में शेष नहीं।।
सीता चौराहों पे, अब खूब बिलखती हैं।
दुर्गा, काली, चंडी भी आज सिसकती हैं।।
धर्मराज के, मुख में भी मिथ्या बाते हैं।
कलयुग में ये, दु:शासन पूजे जाते हैं।।
शिव के नेत्रों, में भी अब वो जान नहीं।
चक्र सुदर्शन, की कोई पहचान नहीं।।
अर्जुन के, तरकश में कोई तीर नहीं।
भीष्म की कोई, प्रतिज्ञा गंभीर नहीं।।
एक नहीं, सौ-सौ रावण अब जिन्दा है।
रामचंद्र का, धनुष भी अब शर्मिंदा है।।
विष्णु के, अधरों पर घोर उदासी है।
लक्ष्मी अब, ऊँचे महलों की दासी है।।
देव करे, रखवाली धूर्त-मक्कारों की।
नारद गाएं, महिमा पापी दरबारों की।।
कातर स्वर में, "साहिल" आज पुकारे है।
वसुंधरा भी, तेरी अब राह निहारे है।।
दया, धर्म की, राह हमें दिखला जाओ।
हे सत्कर्मों, अब कलयुग में आ जाओ।।
*** © *** साहिल मिश्र ***
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