थिरकते होंठ पे नगमा वो कोई गुनगुनायेगा।
इसी अंदाज से शायद वो चंदा को रिझायेगा।।
कहीं सरहद पे कोई चाँद से पैगाम कहता है।
कहीं जलता विरह में कोई करवा भी मनायेगा।।
कहीं पर आधुनिक बाला का उरिया ज़िस्म दिखता है।
बदन कोई यहाँ पैबंद से अपना छिपायेगा।।
*उरिया = नग्न
दुहाई दे रहा रिश्तों की कोई हाथ को जोड़े।
हवस में कोई रिश्तों की यहाँ धज्जी उड़ायेगा।।
छलक जाते हैं अब तो अर्श की आँखों से पैमाने।
खुदा भी सोचता इंसान क्या-क्या कर दिखायेगा।।
ये मजहब, द्वेष, नफरत जब मिटेगी दोस्तों दिल से।
हर इक इंसान तब जाकर ख़ुशी से खिलखिलायेगा।।
कहे इक बात "साहिल" इल्म की समझे अगर कोई।
चलेगा राह जो सच की वही मंज़िल को पायेगा।।
©साहिल मिश्र
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