Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

अन्दर की चिंगारी !!?!!

 

मेरे अन्दर एक छोटी सी चिंगारी
अति सुक्ष्म्य,भीषण अति कठोर
सीने में जल उठने को बेचैन वारी-वारी

 

कैसी उथल-पुथल मचे दिल में भारी
जब मन का हर कोन था विभोर
अब फ़रमानी है जग में वेवाफाई तुम्हारी |

 

बिन बतायें फेंक दिया जैसे_छुत की बीमारी,
कितने बार ख़ाक किया -जला कर
अरमान धूल में मिले,मिटी हसरत हमारी |

 

कितने लम्हे, कितनी रातें, बातें प्यारी-प्यारी,
किया मैंने सुपुर्दे ख़ाक पुर-जोर-
क्या तुम भूल गए?उस दिन की बात सारी |

 

जब बेठे थे एक साथ,पकढ़ उँगलियाँ तुम्हारी.
शर्माती-लज्जाती, चकित तुम और-!
रक्तिम-वर्ण मुख से उल्लास के हर्ष सम्भारी |

 

बेइन्तहा प्रेम का एहसास, बन गई लाचारी
उपेक्षित करने के बावजूद बार-बार,
मैं रहा प्यार में अँधा,मजबूरी समझा तुम्हारी |

 

कि जानती ही हो तुम, जल उठेंगे हम किसी बारी !
यही नहीं मालूम कि -कब आख़िरी बार ?
जुल्म से भभक जलेगी यह अन्दर की चिंगारी,|!|

 



:-सजन कुमार मुरारका

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ