Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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अंतरद्वन्द

 

घर के पीछे का पीपल का पेढ़
जिसके भूरे-पीले तने में
मोटे-मोटे धब्बे,भद्दी-भद्दी धांरियां
समय की मार से हो जाते
पडे-पडे ही,गुमसुम से चुप-चाप
बीते हुवे कल में खो कर,
यांदों के विशाल बरगद के समान
सोच में ढूंढता हूँ अपने अछे-बुरे दिन
ऊब-से, किसी-किसी मौके पे
केवल कुरेद लिया करता हूँ अपने-आप
दूर-दूर तक एक धुंधलापन झा जाता,
सहसा सोच की आंधी झकझंजोर जाती
अपने मन के आईने के सामने,
आदमखोर सी खुद की आकृतियां
और हिंसक पशुता सी स्वार्थ की लालसा
अधिक गहरा जाता बेशरम की तमाशा
बजता बिगुल अंतर्मन में, फिर खामोशी-सी,
सोच,कांप कर सिहर-सिहर जाता ।
अच्छाई-बुराई और विवेक की लढ़ाई
क्या जाने क्या सोच अचानक रुक जाता
चढा कोहिनी,हाथ पैर घुमाकर अपनी बुद्धी से
अधीर हो जाता हूँ सब कुछ सही ठहराने
धब्बे पडते हुए चरित्र में, झूट का चादर
अपनी थाह नाप कर,समझने=समझाने
लौट जाता हूँ वापस, वही राह में,
यह बदनुमा दाग, पेढ़ के तने जैसा बस रह जाता -
खुला विवेक और मन सूना-सूना सा
पानी=पानी होकर, निश्चुप, विवस,
वापस चतुर दिमाग से हार जाता
अब रात आ गई, ठंडी हवा हो गई -
मौन था, मन भटक रहा था!
मैं था और उस पेढ़ की छाया थी,
मोटे-मोटे धब्बेवाला,भद्दी-भद्दी धांरियांवाला
मेरे अतीत को समेटे, आगे से अनजान
मैं इस अंतरद्वन्द को गहराई में जाकर
खोज निकाल करूँगा उसे जरुर बहार

:-सजन कुमार मुरारका

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