Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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बेटी शशुराल चली

 

नये लोग, नये रिश्ते की बुनियाद
डर लगा क्या जाने कैसे होगी आबाद
बिदाकर, भयभीत लज्जित, सहमा
आंसू निकले, चली यादों की परिक्रमा
इस घर में उसकी पहेली मुस्कान
लचीले कदमो में पायल की मृदुल तान
वह उसका पहले पहले तुतलाना
बिना कारन खिलखीलाना, रूठ जाना
धीरे-धीरे बांहों में झुलना, सो जाना
मेरे नयनों में डोले दिन पुराना
वह कमरा, वह बिस्तर, बस्तर-बंद भारी
वह कुर्सी, वह मेज़ ,वह अलमारी
जिनमें रखी किताबें, पुराने कपड़े
फटी पतंग, लाल -पीले कांच के टुकढ़े
वहुत सारी चीज़ें, गुडिया, खिलोने
रेशम की डोरी,झूट-मूट के गहने
और उसका कमरा खाली खाली
अब कैसे बीतेगी दिवाली, होली
दीपों की जगमगाहट, रंगों की रंगोली
कैसे कटंगे यह दिन, यह रात
याद आ रही है हर छोटी सी बात,
क्या जाने उसे बाबुल सा प्यार मिले,
माँ का आंचल, पिता का स्नेह मिले
खुशियाँ हो सारी, ऐसा संसार मिले,
जब बाबुल की चाह मन से निकले
हर पल सोचता हूँ वह कैसे जीयेगी
गुढ़िया मेरी रो रो कर मर जायेगी
कोन बहलायेगा, वह होगी जब उदास,
मनायेगा ? देकर अपनेपन का अहसाश
माँ का ममता, पिता की ललकार
भाई की सुनी सुनी आँखे में प्यार
वह लाचार, मेरा आँगन छोढ़ चली
वेबस किसी अनजान डगर चली
बेटी शशुराल चली कर आँखे गीली

सजन कुमार मुरारका

 

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