सर्द बर्फीली रातों का ठंडा सन्नाटा,
ज़िस्म को भेदता फैला रहा-
शीतलतम लहर अंदर तक;
टटोल कर देखा यादों की सर्द आहें,
तन को उस्मा पहुँचाने जलाइ आग ,
स्मृतीयों से कुछ काठ-कबाड़ जुटाकर;
उठ रहा धुआं सुर्ख-आग के गोले से-
धीरे-धीरे सुहाना ताप;
तन को गरमी पहुंचा रहा था|
समझ कर देखा ....-
उर्ज़ा यह तुम्हारे याद की थी,
कुहासे में सब कुछ ढ़क गया था;
कंही भी साफ़ दिखाई नहीं देता!
बस कुहासा लिपटी हुई ओसों से,
भीगी नीरवता,लगा मेरे सारे,
अरमान एक साथ रो पड़े!
तो,मैं और मेरी तन्हाई---
मौसम की चादर ओड़े खड़े थे,
जहाँ पिघल रहे थे अरमान ,
बह रही थी नयनो की आद्रता;
असमंजस परिस्थिति-का एहसास,
मेरी आँखें कोहरे से धुंधली;
मेरे दोनो हाथ बर्फ़ से सुन,
मेरे चहरे से फटकर खून रिसने लगा!
मेरा दिल सर्दी से ठिठुरने लगा!
दिल में ये र्दद कब उठा ?
कब शरीर का एक-एक हिस्सा,
ज़मकर बेज़ान होने लगा?
तुम्हारे ठंडे पन से !|!
कब तक ये सिलसिला चला,
बदलते मौसम की तरह;
जब कि मुझे मालूम है,
मेरा शरीर पूर्ण स्वस्थ था|
जिसे चलना दूर बहुत,
अब जख्मीं हालात मे;
आश नहीं आगे धूप से भरे दिन,
पत्थरों के जंगल में,
दुर्लभ होगी छाँव भी..!
विस्मृत-सा,थका देह-पिंजर,
दिल मे ववंडर सा उफ़ान ,
दिल की नाव मझधार है।
दिल ने कैसे हवाओं से !
मौसम की चाल ली है,
मैं अनुभूतिहीन बेगाना-अनजान |
सजन कुमार मुरारका
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY