प्रिये! तुम्हारे निभाने की यह रीत है क्या ?
प्यार किया, गुनाह नहीं, फिर डर है क्या ?
वेरुखी की फ़ितरत मन मे है अगर जुदा ;
जानम! कहते, इश्क कभी कंहा है छुपता !
आपने जनाव ! यह बात छिपा रखी थी,
लाख छिपाये, चहेरे पर बात आ रही थी;
चाहे जो यत्न करे, सच्चाई तो छुपती नहीं ;
छुपाओ चाहे गुलाब को,खुश्बू छुपती नहीं ।
इन्कार करने की इतनी सी वज़ह है अगर,
जताना न था तो कोइ शिकवा नहीं मगर,
यह खबर तो सरेआम सबको खबर हो गई,
आप इतने भी नादान नहीं, बेखबर रह गई;
यह नजदीकीयां, नजदीक है दिल के इतनी,
दूरियाँ चाहे बनाना, दूरियाँ होती कंहा अपनी|
सजन कुमार मुरारका
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