Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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कल जो संजोया, खोकर अपना वर्तमान

 

सजन कुमार मुरारका

 

 

पढ़ लिखकर काबिल बनने घर छोढ़ चले
उजढ़ा चमन, पर है सपने उनके निराले,
नई उमीदें, नई आशाये, नई मंजिले
खुला आसमा, खुली हवांये, न कोई बंदन
सुख दुःख के जीवन मैं, एकाकीपन का स्पंदन

महक रहा है जैसे उपबन, स्वर्प लिपटे चंदन
संघर्ष है, बिराम नहीं, मरुस्थल सा जीवन ....

रह गए हम बेबाक, गुमसुम अकेले
बगिया उजढ गई, सतब्द है, देख नए उजाले

रोटी छोटी पढ गई, दो टुकरों के लाले

जिगर काटकर भी ला देते, दो निवाले

रहे वह आबाद, मिले यश, प्रतिस्ठा, सन्मान
बिछरने का गम है. पर न कोई अभिमान
वक्त हमारा बीत गया, कुछ दिनों के मेहमान
कल जो संजोया, खोकर अपना वर्तमान

 

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