Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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लो हो गई कविता

 

अन्दर मन मे
हर बार
हर हालात मे
अलग-अलग से
कुछ टूटा रहा है
तो कहीं कुछ
नई -नई सी
कोई सोच
अंकुरित होती
बस यों ही
इन सोचों की
दीवारों पर
कल्पना के रंग
भीतर की
तूलिका से रंगती
मेरी चिंता
नहीं जानता
क्या सब ठीक
सोच रहा हूँ ,
या गलत
पर चुप रहने भी
नहीं सकता
कुछ लगातार
दौड़ता है अन्दर
और अन्दर
छिपी हुई शिराओं से
दिल की तहों के
लुप्त हो चली
समवेदना
विवेक और मर्यादा
या सोच की
सूक्ष्मता
जैसे सूत कातता
बुनकर
कभी-कभी
उलझ जाता
काते हुए सूत की
उलझन मे
मैं भी उलझ गया
जानबूझ कर
जिसमें हैं
मेरी बुनी गई
इन्सानियत
और हर भाव
जो दिल के अन्दर
टूटते-बिखरते
और इससे परेशान
दर्द जब उभरता
मैं कहता
लो हो गई कविता

 

 

सजन कुमार मुरारका

 

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