मैं अपने आप को बूढ़े पेढ़ के साथ मिलाकर
सोचता हूँ, कितनी त्रासदी हैं उन बुजुर्गों की
जिन्हें अब बेकार का जंजाल समझा जाता है |
बुजुर्ग को बूढ़े पेढ़ के प्रतीक मे सोचकर देखें.......
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मैं बूढ़ा पेढ़,
मुझ मे झुरियां पढ़ चुकी,
कितने अर्सों से यहाँ खड़ा !
गर्मी-सर्दी,सावन -भादो-
हर मौसम को निहारता,
सारे के सारे उतार चड़ाव,
चिलमिलाती धुप सहकर,
दूसरों के लिये छाया बिछाता,
हर राही को ठण्डक दिलाता |
बदलते समय के साथ,
चहरे पर जो मेरे रुबाब था,
अब बदल गया, बूढ़ा हो गया |
कुछ पीली-मुरझाई सी पत्ती,
अध्-सुखी टहनी और झुरियां,
वक़्त के साथ, साथ छोढ़ देती !
हवा के हलके झोंकों से भी,
मेरा कठोर सा तन अब झुर-झुरा,
गर्मी-सर्दी से डर कर रहता सहमा सा,
ठण्ड मुझे अब सताने लगी,
गर्मी मुझे अब सुखाने लगी,
बरसात अब कर देती पानी-पानी |
हवा के झोके तन मे चुभते,
में जान रहा हूँ में बूढ़ा हो गया !
मेरे रखवाले कहते- "तू गिर जा"
नहीं तो यहाँ से हटाना होगा,
तुझे काट गिरना होगा,
बनेगी नई फुलवारी, नई क्यारी,
वक्त के साथ जमीं से अलग हो जा !
काम आयेगा कुछ आग में जल,
कुछ का बना देंगे नया फर्नीचर,
ओ बूढ़े पेढ़ ! तू समझ, मान जा !
अरे अक्कल के अंधे,
और नहीं तो आंधी मे ही गिर जा,
कितने गिरते हैं हरदिन, बेहया,
कुछ तो शरम कर, और, मर जा |
:- सजन कुमार मुरारका
(ए.के.भार्गव की रचना "बूढ़ा पेढ़" के अनुकरण मे )
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