Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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मन-बादल सा

 

मन में बसे ,अंतहीन गगन सम आचार
जिसका अंत-आदी का न कोई परापार,
जब छाये दुखी -दुर्बल सा कोई बिचार,
तब लगे नीले अम्बर सा ब्यबहार
सीने में जलन,-आशाओं के प्रहार
तरंगित करते,बेदनाओं के सुप्त तार
ब्रज-बिद्युत सम भरते संघर्षण की झंकार
तमस विकलता में आकुलता की हाहाकार !
बज्र-कम्पित धरा को झाँकी दिखलाकर,
शून्य-अम्बर से रिसे उम्मीद की जलधार
निखिल से फैलता हुआ प्राणों का आसार
वारिद के झोंके देते नव जीवन आधार
कि चिन्ता है नियति से मिला अधिकार,
मन के ऊपर" महाशून्य"का छाये विकार,
कटु अनुभव,जगाये मन में क्षुद्र विचार ,
नहीं सत्य, सिर्फ वेदना का निर्मम प्रहार
वाष्प बन उड़ जाये, क्षितिज समाये बेहतर
हर्षित इन्द्रधनुषी रंग,रंजित अँजली में भर –
नभ की विशालता में दिखे राहें बेसुमार
घूमता रहता मन बादलों के समान रह रहकर

 

:-सजन कुमार मुरारका

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