Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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मंजूरी पाना हैं

 

मिट्टी का काम मूरत बनाना भी होता
अभी हम गीली मिट्टी के बने जरा कच्चे खिलौने हैं
आग में पिघल-कर ही सोना खरा होता
अभी तो बदनामी में पककर ज़रा तैयार होना हैं
पर्वत ही हिमालायाँ जैसा ख़ूबसूरत होता
अभी हम कंकड़-पथ्थर हैं, कठोर शीला बनना है
फसल कटेगी वही जो किशान बोया होता
अभी इल्जाम-बिन बोये दुसरे की फसल काटना हैं
सन्देह जब निष्कलंक "सीता" पर भी होता
अभी कुछ शिकायतें- इसलियें हमें चुप-चाप सहना है
भावों के सौदागरों के अहम् निराला होता
अभी हवाएँ, पानी, आग, आसमाँ, उन्ही से पाना है
सूरज से "दिन" होता, सूरज "दीन" नहीं होता
अभी तो "दिन" की खोज में अंधकार में गुप्त होना है
भटके हुवे राही को छोटी सी आहट का डर होता
अभी तो भटकना होगा,और ,कवितायेँ लेकर, मंजूरी पाना हैं

 

 

सजन कुमार मुरारका

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