Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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मेरी लोभी आकंक्ष्या

 

मेरी आकंक्ष्या या लक्ष्य;
जीवन की विषम त्रासदी!
मेरा चरित्र का शंसय,
किसलिये,किस का ......
लिये हुये है आकर्षण !
अपर्याप्त,असन्तुस्ट मन,
सिर्फ उत्कर्षं की प्रतीक्षा;
अतृप्त स्रवभुक लक्ष्य चुना|
कब पाउँगा लक्ष्य को,
कुछ भी करना चाहता-
अपने आप को बेच डालूँ-
दुसरों की चाहत मिटा डालूँ-
मोह सदा ही रहता सामने|
जैसे तैरता मीन का नेत्र;
मुझे उसे भेदना हर हाल मे|
सामने मेरा ज्वलन्त लक्ष्य,
न्याय या अन्याय का भाष,
कोई भी हो रास्ता,एहसास
स्वार्थ के आगे सब बौने|
भावनाओं का क्या काम,
खोजता हूँ मेरी प्रसन्नता;
सिक्को की झंकार मे.....|
विचित्र नहीं यह सोच,
चाहे इस चाहत मे,
बरबादी निश्चित पहचान;
नया कुछ भी नहीं जान,
नहीं जाता नई राह मे|
साहस भी नहीं,
न लड़ने की क्षमता;
डराये मुझे भयावहता;
इसलिये दुसरों की तरह,
सोच की व्याकुलता;
मुझे छिन्न-भिन्न करती!
फिर भी राह नहीं बदलता|
क्यों की हर तरफ दिखता,

नीचता काले मन की;
मिलती कुठील मुस्कान;
औपचारिकता निभाते,
और लोभ से परिपूर्ण |
हर कोई घूम रहा ,
अपना मृत देह-आत्मा ;
अपने कंधों पर लिये|

 

 


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