यह मेरी शुरुआत थी लेखन की
दर्द, खुशी, चाहत और सोच बताने की
और सुप्त लालसा अपना नाम छपाने की
माने चाहे न माने लोग,अहमियत जताने की
बहुतों में हूँ, मैं भी कुछ, थी बात समझाने की
ताक-झांक की तरकीब से कुछ-कुछ लिख डाला
शब्द चुने, जोढ़-तोढ़कर,बनाया भानुमति का पिटारा
भाव थे या नहीं,अर्थ या अनर्थ, अविवेचना की माला
"सरस्वती" का साथ नहीं, चतुराई से काम निकला
सृष्टा को सृजनता से कभी कस्ट होता है भला
लिख-लिख पन्ने काले हुवे,पढ़ने वाला चाहिये
समझ आये, न आये,वाह-वाह को मत तरसाइए
उतकंठा प्रवल,ख्याति-यश रातों-रात चाहिये
छंद,ताल,लय,माधुर्य और भावना को भूल जाइये
अशाय था सिर्फ और सिर्फ लेखन को सही बतलाइये
उत्साह-आकंक्ष्य की प्रज्वलित थी भीषण ज्वाला
नाते-रिश्तेदार, भाई-बन्धु, परिचित-पहचानवाला
कोई बच नहीं पाया,सब का जीना हराम कर डाला
आते-जाते,बात-बेबात सबकी सोच का निकला दिवाला
सब कतराने लगे, मेरे जूनून का असर था अजब निराला
कुछ ने समझा पागल, कुछ ने धमकाया
कुछ ने मजबूरी से सहा, कुछ ने समझाया
कुछ ने उपदेश दिया-समय की बर्बादी बताया
वक़्त की धारा, पर मेरा लेखन रुक नहीं पाया
लगन बढ़ी, हुवे मगन, बुद्धू लोट के घर नहीं आया
अब बारी थी काम दिखाने की, नाम फ़ैलाने की
द्वार-द्वार घुमा, किसी ने दया न दिखाई छपाने की
सब मागें प्रमाण-पत्र "प्रतिस्ठा और स्वीकृती की
पूछे कंहा-कंहा हुई प्रकाशित या दुहाई मौलिकता की
चुभन भरे सहे तीर कारण-अकारण कटु आलोचना की
:-सजन कुमार मुरारका
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