मन के गहरे अन्धकार मे,
अहम के दीप जलाये;!
मेरे खोखले वसूलों को,
आधारमय बनाता रहा |
स्वयं विश्वस्त होता-;
न्याय-अन्याय के पलों मे,
घरोंदो में बन्ध चिडीया सा
जैसे रहता मोती सीप में,
मेरे मूल्यहीन अमूल्य सोच से,
कठोर मनके कोमल लब्ज़ के,
निर्ममता से दीवालापन;
करता रहा परिवेसन!|!
मेरा पंकिल मन हरदम,
पंक में कमल खिलाता रहा;
स्वार्थ और प्रतिहिंसा का |
सारी नैतिकता टूटी जा रही,
जैसे स्याही से पुते जा रहे,
जीवन के सारे लेख-लिखन|
कैसे समझाऊँ क्या है उलझन?
नहीं मालूम पछतावा है या नहीं,
या चाहे पाना मेरा मन भी यों ही;
फिर से अच्युत सा विवेक !!
जाने मन के गहरे सागर मे,
क्यों कर सोच की हलचल!
बीता जो सताये हर पल|
चाहूँ एक जीवन हराभरा,
नहीं अब चाहता ऐसे जीना-
मन का अँधेरा फैलाकर;
गुमनाम जीवन अकेले का |!!
सजन कुमार मुरारका
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