गरीबों के दर्द मे हिस्सेदार हैं सारे मतलब के सरदार
बस्ती बस्ती घूमते नज़र आये पांच साल मे एक बार |
हो के पास सब कुछ,है पर नहीं कुछ,गरीबी के तरफ़दार
गरीबों को मिटाकर के गरीबी मिटाने के दिखते है आसार|
रंजिशों की फ़सल बो कर ये बाँट रहें मजहब को बार -बार
खून के रंग से तिलक लगा के सत्ता की सियासत को बेकरार|
ज़ुल्म भी यह करते बेगुनाहों पर,मरहम लेकर बने मददगार
बेवस जनता है, सारे लाचार,फ़रियादी से करते झूठी तकरार ।
कहते हैं, सूरत बदल बदल जायेगी जब बनेगें यह सियासतदार
फ़ितरत बदले नहीं,बदल जायेगी सुरत इनकी,नहीं इससे इन्कार|
ताकत के -गुमान से,शोहरत के अभिमान से,फैलाएं यह भ्रस्टाचार
हर बार की तरह इस बार भी,हसरत पुरी कर देगें हम होकर लाचार|
कब तक सिमटते रहेगें हम सब,सिसकते-सिसकते मागेंगे अधिकार
आजमाइश की तकलीफ़,सहते रहते महगाई,अन्याय,और भ्रस्टाचार|
पुरज़ोर बदलाव के जख्म की खातिर,हम घर मे छिपे रहते हैं हरबार
गुफ़्तगू की छांव मे,बड़ी-बड़ी बातों से यारों,हवा मे भान्झते है तलवार|
चर्चे तो इन्कलाबी पैगाम के हर शाम होते हैं,उपर से तालियों की बौछार
तोतली जुवां भी सपाट रहनुमाई बोलती,पर कुछ करने को होती नागवार|
सजन कुमार मुरारका
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