Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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पाषाण मूर्ती !!

 

क्यों किसी कारीगर के चिंतन को,
तेरा ही चेहरा मिला पत्थरों के लिये,
कैसे? पर्दा उठाना है इस रहस्य से,
कब तक नाइका की भांति रहस्य मइ,
सिमटी रहोगी तुम लेकर वैभव कांति!
बनानेवाले के आंखों का पानी,
अंत:सलिला की तरह,अन्दर ही,
मन को गीला करता,तेरे लाब्यन को,
रंजित करता,शुष्क नयनो से ।
मुख की मूकता, ह्रदय की धड़कन को,
अनसुना सा, धमनियों से लहू निचोड़कर,
रूपित करता,शीलाओं को काटकर,
क्या बंजर हो गया था शिल्पी का मन;
खतरा उठा रहे थे पत्थर को तरासने की,
या रोपण कर रहे थे भविष्य चित्रण का!
तुमने कुछ कहा नहीं, कुछ कहती नहीं?
तुम्हारे कान सुन भी सकते, तो सुनो भी;
बस खड़ी रहती हो, कुछ बोलो,बताओ भी;
मैं अकेला नहीं तैयार,दुनिया चाहती सुनना!
कब तक रहोगी पाषाण,सजीब मुरत बनकर,
निश्चुप,स्तब्द,पाषाण मूर्ती ?

 

 

 

सजन कुमार मुरारका

 

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