सचल पल में निश्चल नयनो के हलचल
अन्दर निश्चुप,बाहर कितना कोलाहल
बाहर निश्चुप, अन्दर कितना कोलाहल
वो तुम थीं, जो मुझको सदा टोकतीं
“मेरा दिल है पत्थर का ” कह रूठतीं ,
कहा ठीक तुमने, मेरा दिल है पत्थर का,
तुम्हरी यादें बन गई लकीरें, ना बुझी ना मिटीं,
इतने अरसों के बाद,पत्थर सी दिल में सटी
सजन कुमार मुरारका
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