मृत्यु की व्याकुलता से परेशान :
इस पीड़ा को अब मन न पहनाना,
अतीत की वि-स्मृति का परिधान!
डिगे नहीं कितने भी हो प्रलोभन
अन्दर में सदा मचाता रहे तूफ़ान
बेच दी मैंने,अपनी जीवन अस्मिता
मग्न रहता, महसुस अपनी व्यथा,
कभी न सोचा, जीवन का सही तत्व
रुक गया सब कुछ,लगे जैसे अभिशप्त
कर-कर, अपने अश्रुजल से अभिषिक्त
हृदय मे बजे"पीडिता"की व्यथा घन बन
आक्रोश,अतृप्ति,अव्यवस्था की आग सघन
पीड़ा मे आतुर-असहाय प्राण के कण- कण
मन याद रखना-रहे अमर"उसका"बलिदान
कैसी कैसी पीड़ा-सह,निशब्द हुवे पीड़ित प्राण
मृत्यु से, विलख रहा इन्सानियत का मान
सरकारी नपुंकसता कर रही देश का अपमान
मन की निर्जनता मे,वर्तमान का गहरा विषाद
निरखने लगा, ज्वालामुखी फटने सा निनाद
समझाने लगा, अगर यह बलिदान न होता
सनातन चुप्पी लिये हम मे रहती शून्यता
कैसे जीवित होता, इन्सानी तत्वों का अस्तित्व
यह जीवन-दान,नैतिकता को देगा फिर अमरत्व
सजन कुमार मुरारका
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