Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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तीन-पंक्तियाँ

 

 

*
तीन पंक्तियों के मेल,
सजन ‘का ’ खेल;
आप सब बिठाएं ताल-मेल।
*
हवा वासंती चली,
रंग फिज़ा मे खिला;
यादें भी हुइ रंगीली।
*
पालनहार प्रभु मेरे;
तेरी दया को तरसे,
तुम ही तो हो मेरे|
*
अदा है दिल तोड़ना,
टूटने पे भी प्रिया;
तेरी अदा से जुड़ गया!
*
आ कर चले जाना,
बहाना है पुराना;
याद अपनी साथ ले जाना!
*
सुख- दु:ख आते जाते;
दोनो बे-असर,
धर्य जो रख पाते|
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सोच अब हो गई बेमानी,
अब रिश्तों में;
दरिया मे जैसे बहता पानी।
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सावन की हरियाली सा;
पिया घर लोट आये,
तन सजनी का निखरा।
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सावन मे झूमे-नाचे,
मन बादल सा;
झम-झमा-झम बरसाए।
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होनी तो है बलवान,
चिंता-चिता समान;
होता है जो विधी-विधान।
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तुम जो मस्कुराए,
खुशबू- सी फ़ैली;
कलियाँ खिल-खिल जाये|
*
यह बात कहाँ रुकती,
देर तक सताती;
तुमने ही वादा खिलाफ़ी की।
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नस नस में शिहरण,
स्पर्श मन-मोहन,
चंचल सा चित्तवन!
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कैसे कैसे हालात हुए,
जब ख्यात हुए;
अच्छा था ‘कुख्यात’ थे।
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कट जाए मन का अँधियारा,
खोलो विवेक नयन;
मन में हो जाए उजियारा।
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दो औ‘ दो पाँच जब,
सच होते अब;
दावं-पेच के हिसाब सब।
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वो पल कभी नहीं आए,
भ्रमित मन ने;
सोच-सोच मे व्यर्थ खोए।
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हम मोम से पिघल गए,
फिर मुलाक़ात मे;
चहरे के ऊर्जा-तेज़ से।
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सागर गहरा,है खारा;
नदिया मीठी बहती,
बहाव मे सब वारा|
*
काँटों मे भी कलियाँ,
कहतीं-झूमेंगे;
मस्ती की रंगेलियाँ |

 

 

सजन कुमार मुरारका

 

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