मनुस्यों के घने जंगल में
जानवर से परिवर्तीत
परिवर्तनशील
मनुस्य
रहते डरे डरे से।
सब खड़े हैं डरे से
आम आदम डरा है,
खास चुप है
मूक मौन
किसी नई सरसराहट से!
मानवता का जंगल
सड़े पत्ते, गले पत्ते से
डका पड़ा है
कहीं कहीं
हरे लाल पत्ते नोटो से
जीवन पथ को ढँक रहे
नुकीले पत्थर के
बिछाओ से ।
चलो इन पर चल सको तो,
रौदों इनको रौदं सको तो,
यह घिनौने, यह कूरूर
यह निश्चुप,नींद में डूबे हुए
ऊँघते जगे हुए,अटपटे से
उलझे से !
इन्हे अचानक
खींचके पकड़ के
क्यों जगाया कुम्भकर्ण की नीदं से!
पता नहीं था क्या तुम्हे
नीदं से जागने पर
कितना शोर मचेगा
अजगरों से भरे जंगल में
पांव डाला तुम्हने
उनकी पुंछ पर !
बड़े छोटे मुहं वाले
इस जंगल के अन्दर
अपनी अपनी ज़गह
कुन्डली मारे
निश्चिन्त बैठे,
नियम नितीयों के बीच बैठे,
कान में रूई डाले
तगड़े, मोटे, ज़हरीले !
जब कि इन की सुनी जाती
सरसुतिया (सरस्वती) गुन गाती,
और इन पे देवी देवताओं लपकते
चाहे कितनी बास आती,
गूँज उठते ढोल इनके,
शब्द इनके, बोल इनके
रेगंते यह अपनी चाल में
खोह-खड्डों खाइयों में
क्षितिज तक फ़ैला
मृत्यु तक का खेला
अहंकार से
मथित, उत्थित
ज़हर ज्वाला
क्या इन अजगरों से
लड़ने का विधीगत ज्ञान
तुम्हने सीखा
अगर सीखा
और-- तुम्हने जब बीन बजाई
फिर क्यों बंध कर डाला
बजाती रहती
सुर में, धुन में,
बजाने के लय- ताल में
बेतुके, बेसुरे, फुवड़
शोर से बचाकर
अजगरों को नचाने में ।
सजन कुमार मुरारका
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY