अचरज भरा अद्भुत समय
बुनियादि परम्परायें
रेत की तरह अब ढहे |
हम सभी ठीक तभी
टुकड़ों-टुकड़ों में बाँट रहे
बैर, हिंसा और नफरतें ||
न जाने कोन आस्तीन के नीचे
जाने किसके लिये क्या ?
अन्तर्घात या हिंस्रता छुपाये,
कंधे पर हाथ रखते,
साथ-साथ चलते-चलते,
बिषधर सी चिरी हुई जीभें,
कब जहर उगल जाते!
धर्म, जाती, वर्ण और भाषा
की कोई अदृश्य आरी से
विभक्त, निर्लिप्त, और असहाय कर
बहुत महीन टुकड़ों में काट जाते ||
एक साथ मुट्ठी भींचकर खड़ें हो सकने से
हम सब कुछ पा सकते -
उन जहरीले अजगरों से
एक-एक करके नहीं, झुण्ड के झुण्ड लड़ते
सर्वस्व के लिये, अपने लिये
प्रेम, प्यार और भाईचारा से जीते |
अचरज भरा अद्भुत समय
हम सभी ठीक तभी
जागते-जागते सो रहें ||
:-सजन कुमार मुरारका
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