सोच ही तो माया का खेल है,
बहुत गहरा उलझा सवाल है,
भगवान् एक, पर रूप अनेक ;
भगवान् ने हमे बनाया,हुवे एक!
सिर्फ़ चहेरा-मोहरा से रूप अनेक,
जात-पात, धर्म का फैलाकर फर्क;
हम,एक-एक को,अपने से घटाकर!
जोड़ना चाहे,खुद को खुद से मिटाकर,
जो आता,वह वैसे भी चला जाता-;
साथ तो कुछ भी नहीं लेकर जाता |
सबका ज्यादा और कम मिलकर,
शून्य रहता उसके लिये मरने पर |
जब शून्य है,फिर ये सब झगडे क्यूँ ?
समझदारों की सोच मे उलटा सा क्यूँ ?
शून्य लेकर आये,शून्य लेकर जाना है,
मेरा-मेरा करे,यह सब झुटा फ़साना है !
जिसके पास जितना ज्यादा होता..!
"और" की लालसा मे असंतुष्ट रहता,
जिसके पास नहीं होता,वह सच मे रोता;
थोड़ा सा मिल जाने पर, ज्यादा चाहता,
इस क्रम से सुख मे भी दू:खी होना-
चलता रहता दू:ख मे सुख खोजना !
यही सोच का जंजाल है,माया-जाल है,
शून्य से शुरू,शून्य मे अंत,शून्य का खेल है!|
सजन कुमार मुरारका
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